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पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५९५

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गुप्त-निबन्धावली - स्फुट-कविता कौशल्या निरखत मुदित मन, जयति राम आनन्द घन ॥ सहित अनुज बन बीच करी मुनिमख रग्ववारी । मारग जात निहारि नार पाथरकी तारी ।। जनकपुरी महं जाय यज्ञको मान बढ़ायो । नृपति प्रतिज्ञा राखि सीयको मन हुलसायो ।। शिव चाप तोरि खल नृपनको, मान दर्प चूरन कस्यो। अरु भृगुकुल कमल पतङ्गको, चाप बचि संशय हस्यो ।। सुन विमातके वचन तुरत वनको उठ धाये । मदित छोड़ि पितु मात प्रजा, मन सोच न लाये ।। अवध तजनको खेद नाहिं धन धाम तजन कर । किन्तु भरतको ध्यान एक उर माहिं निरन्तर ।। जय जटाजूट कर धनुष शर, अङ्ग भस्म बलकल-वसन । सिय अनुज सहित वन गमन करि, पिता वचन पालन करन ।। नेही जानि निषाद नीच छातीसों लायो। लछमन सम प्रिय भाषि प्रेमसों हियो जुड़ायो ।। स्वाद बखानि बखानि भीलिनीके फल खाये । निज करपङ्कज ताहि दाह कर आगे धाये ।। [ ५०८ ]