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पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६३९

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गुप्तनिबन्धावली सुट-कविता दिल्लीमें जामामस्जिदके पास एक छोटा-सा घर था, बहुत वर्ष नहिं हुए कोई एक रहता उसके भीतर था। वहीं पासके रहनेवालोंसे जो पता लगाओगे, चिन्ह अब तलक भी कुछ उस टूटेसे घरका पाओगे। पास मोहल्लेकी मस्जिदमें करता रहता वह उपदेश, काल बिताता पढ़ाके लड़के साधारण रखता था वेश । एक बार ही समयने उसके एक ऐसा पल्टा खाया, छुड़वाके मसजिदके टुकड़े ऊँचे पद पर पहुँचाया । द्रव्य पायके अपने मनमें अब वह इतना फूल गया, बड़ा अचम्भा है दो दिनमें सब पिछली गति भूल गया । कीड़ोंने “असबाबे बगाबत” (१) को अबतक नहिं खाया है, उल्था करनेवाला भी भूतलमें नहीं समाया है। बोलो तो बुड्ढे बाबा क्या उस सनेहका हुआ निचोड़, भूल गये पञ्जाब-यात्रामें तुम आंख रहे थे फोड़ (२) ? हिन्दू और मुसलमानोंको एकहिसा बतलाते थे, आंख फोड़नेको अपने झटपट प्रस्तुत हो जाते थे। क्या कहते हैं लोग तुम्हें कुछ बातका उनके ध्यान करो, क्या क्या चर्चाएं फैली हैं जरा उधर भी कान करो। हमने माना द्रव्य कमा कर घरको अपने भर दोगे, पर यह तो बतलाओ अन्तःकरणको क्या उत्तर दोगे ? (१) "असबाबे बगावत” एक पोथी है, जो सर सैयदने गदरके बाद बनाई थी। उसमें दिखाया था कि यदि हिन्दुस्थानी कौंसिलोंमें भारतीय प्रजाके प्रतिनिधि रहते तो सन् १८५७ ई० का गदर न होता। (२) पञ्जाबमें लेक्चर देते हुए सैयद साहबने कहा था कि मेरे एक ही आंख होती तो अच्छा था, जिससे हिन्दू मुसलमानोंको एक हो दृष्टिसे देखता। [ ६२२ ]