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पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६६३

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गुप्त-निबन्धावली स्फुट-कविता नभ महं उड़त न देखे बकगन बांधि कतार | पी पो शब्द पपीहनको कोयलकी कूक, झी झी झिल्लीगनकी अरु मोरनको हुक । कछु नहिं पस्यो सुनाई सावन बीत्यो हाय ! अरु भादोहूं सूखो सूनो गयो बिलाय । सूखे डाबर सूखे नाले नदी तड़ाग बिखरी चहुं दिस ग्रीसमहूंसों बढ़िक आग । पय विहीन सिसु, मात पिता सब अन्न बिहीन, त्रिन बिहोन पशु डकरावत ह के अति दीन । भादों बीत्यो अरु आसिनहू बीत्यो जाय तोहूं दया न ब्यापी घन तेरे मन हाय ! वह देखो पशु लोटत भुंइ महं परे बिहाल । वह देखो नरनारी डोलत जिमि कङ्काल ! वह देखो शिशु डोलत जिनके बाप न माय, देखहु देखहु गीध रहे सिर पर मंडराय ! देखहु देखहु दिन दोपहरे डोलहिं स्यार, सिवा मदन छायो चहुँ दिस अरु काक गुहार ! द्रवहु द्रवहु भारत पर अबहूं हे धनश्याम ! अब न बचावहुगे, आवहुगे पुनि केहि काम ? जदपि भये जीवन सों अब सब लोग हतास, तदपि नाहिं टूटत हे नवधन ! तुम्हरी आस ।। -भारतमित्र, ९ अक्टूबर, १८९९ ई० [ ६४६ ]