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पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६६८

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पिता । एहौ जगतपिताके प्रतिनिधि पिता पियारे ! मोहि जन्म दें जगत द्रस्य दरसावन हारे ! तव पद पङ्कजमैं करौं हौं बारहिं बार प्रनाम, निज पवित्र गुनगानकी मोहि दीजै बुद्धि ललाम ।। यद्यपि यह सिर मेरो नहिं परमाद तिहारो। प्रम-नेम ते तदपि चहौं तव चरननि धारो। गंगाजूको अर्घ सब, हैं गंगहि जलसों देत, ऐसो बालचरित्र मम लखि रीझो मया समेत ।। बन्दी निहछल नेह रावरे उर पुर केरो। लालन पालन भयो सबै विधि जासों मेरो। उलट-पुलट काम मम अरु टेढ़ी मेढ़ी • चाल निपट अटपटे ढङ्गहू नित लखि लखि रहे निहाल ।। कहीं कहां लग अहो आपनी निपट ढिठाई ! तव पवित्र तन माहिं बार बहु लार बहाई । सुद्ध स्वच्छ कपड़ान पर बहु बार कियो मल मूत । तबहुं कबहुं रिस नहिं करी मोहि जान पियारो पूत ।। लाखन अवगुन किये तदपि मन रोष न आन्यो । हंसि हंसि दिये बिसारि अज्ञ बालक मोहि जान्यो। [ ६५१ ]