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140 : प्रेमचंद रचनावली-6
 

चौदह

चौदह

होरी की फसल सारी की सारी डांड़ की भेंट हो चुकी थी। वैशाख तो किसी तरह कटा, मगर जेठ लगते-लगते घर में अनाज का एक दाना न रहा। पांच-पांच पेट खाने वाले और घर में अनाज नदारद। दोनों जून न मिले, एक जून तो मिलना ही चाहिए। भर-पेट न मिले, आधा पेट तो मिले। निराहार कोई कै दिन रह सकता है। उधार ले तो किससे? गांव के छोटे-बड़े महाजनों से तो मुंह चुराना पड़ता था। मजूरी भी करे, तो किसकी? जेठ में अपना ही काम ढेरों था। ऊख की सिंचाई लगी हुई थी, लेकिन खाली पेट मेहनत भी कैसे हो!

सांझ हो गई थी। छोटा बच्चा रो रहा था। मां को भोजन न मिले, तो दूथ कहां से निकले? सोना परिस्थिति समझती थी, मगर रूपा क्या समझे। बार-बार रोटी-रोटी चिल्ला रही थी। दिन-भर तो कच्ची अमिया से जी बहला, मगर अब तो कोई ठोस चीज चाहिए। होरी दुलारी सहुआइन से अनाज उधार मांगने गया था, पर वह दुकान बंद करके पैंठ चली गई थी। मंगरू साह ने केवल इंकार ही न किया, लताड़ भी दी-उधार मांगने चले हैं, तीन साल से धेला सूद नहीं दिया, उस पर उधार दिए जाओ। अब आकबत में देंगे। खोटी नीयत हो जाती है, तो यही हाल होता है। भगवान् से भी यह अनीति नहीं देखी जाती है। कारकुन की डांट पड़ी, तो कैसे चुपके से रुपये उगल दिए। मेरे रुपये, रुपये ही नहीं हैं और मेहरिया है कि उसका मिजाज ही नहीं मिलता।

वहां से रुआंसा होकर उदास बैठा था कि पुन्नी आग लेने आई। रसोई के द्वार पर जाकर देखा तो अंधेरा पड़ा हुआ था। बोली-आज रोटी नहीं बना रही हो क्या भाभीजी? अब तो बेला हो गई।

जब से गोबर भागा था, पुन्नी और धनिया में बोलचाल हो गई थी। होरी का एहसान भी मानने लगी थी। हीरा को अब वह गालियां देती थी-हत्यारा, गऊ-हत्या करके भागा। मुंह में कालिख लगी है, घर कैसे आए? और आए भी तो घर के अंदर पांव न रखने दूं। गऊ-हत्या करते इसे लाज मी न आई। बहुत अच्छा होता, पुलिस बांधकर ले जाती और चक्की पिसवाती।

धनिया कोई बहाना न कर सकी। बोली-रोटी कहां से बने, घर में दाना तो है ही नहीं। तेरे महतो ने बिरादरी का पेट भर दिया, बाल- बच्चे मरें या जिएं। अब बिरादरी झांकती तक नहीं।

पुनिया की फसल अच्छी हुई थी, और वह स्वीकार करती थी कि यह होरी का पुरुषार्थ है। हीरा के साथ कभी इतनी बरक्कत न हुई थी।

बोली-अनाज मेरे घर से क्यों नहीं मंगवा लिया? वह भी तो महतो ही की कमाई है, कि किसी और की? सुख के दिन आएं, तो लड़ लेना, दु:ख तो साथ रोने ही से कटता है। मैं क्या ऐसी अंधी हूं कि आदमी का दिल नहीं पहचानती। महतो ने न संभाला होता, तो आज मुझे कहां सरन मिलती?

वह उल्टे पांव लौटी और सोना को भी साथ लेती गई। एक क्षण में दो डल्ले अनाज से भरे लाकर आंगन में रख दिए। दो मन से कम जौ न था। धनिया अभी कुछ कहने न पाई थी। कि वह फिर चल दी और एक क्षण में एक बड़ी-सी टोकरी अरहर की दाल से भरी हुई लाकर