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पृष्ठ:गोदान.pdf/१७३

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गोदान : 173
 


'हां, बेची है।'

'तुम्हारा यही वादा तो था कि ऊख बेचकर रुपया दूंगा।'

'हां, था तो।'

'फिर क्यों नहीं देते! और सब लोगों को दिए हैं कि नहीं?'

'हां, दिए हैं।'

'तो मुझे क्यों नहीं देते?'

'मेरे पास अब जो कुछ बचा है, वह बाल-बच्चों के लिए है।'

पटेश्वरी ने बिगड़कर कहा-तुम रुपये दोगे, सोभा और हाथ जोड़कर और आज ही। हां, अभी जितना चाहो, बहक लो। एक रपट में जाओगे छ: महीने को, पूरे छ: महीने को, न एक दिन बेस, न एक दिन कम, यह जो नित्य जुआ खेलते हो, वह एक रपट में निकल जायगा। मैं जमींदार या महाजन का नौकर नहीं हूं, सरकार बहादुर का नौकर हूं, जिसका दुनिया-भर में राज है और जो तुम्हारे महाजन और जमींदार दोनों का मालिक है।

पटेश्वरीलाल आगे बढ़ गए। सोभा और होरी कुछ दूर चुपचाप चले। मानो इस धिक्कार ने उन्हें संज्ञाहीन कर दिया हो। तब होरी ने कहा-सोभा, इसके रुपये दे दो। समझ लो, ऊख में आग लग गई थी। मैंने भी यही सोचकर, मन को समझाया है।

सोभा ने आहत हंठ से कहा-हां, दे दूंगा दादा! न दूंगा तो जाऊंगा कहां?

सामने से गिरधर ताड़ी पिए झूमता चला आ रहा था। दोनों को देखकर बोला-झिंगुरिया ने सारे का सारा ले लिया होरी काका! चबेना को भी एक पैसा न छोड़ा। हत्यारा कहीं का। रोया, गिड़गिड़ाया, पर इस पापी को दया न आई।

शोभा ने कहा-ताड़ी तो पिए हुए हो, उस पर कहते हो, एक पैसा भी न छोड़ा!

गिरधर ने पेट दिखाकर कहा-सांझ हो गई, जो पानी की बूंद भी कंठ तले गई हो, तो गो-मांस बराबर। एक इकन्नी मुंह में दबा ली थी। उसकी ताड़ी पी ली। सोचा, साल-भर पसीना गारा है, तो एक दिन ताड़ी तो पी लूं, मगर सच कहता हूं, नसा नहीं है। एक आने में क्या नसा होगा? हां, झूम रहा हूं जिसमें लोग समझें, खूब पिए हुए है। बड़ा अच्छा हुआ काका, बेबाकी हो गई। बीस लिए, उसके एक सौ साठ भरे, कुछ हद है।

होरी घर पहुंचा, तो रूपा पानी लेकर दौड़ी, सोना चिलम भर लाई, धनिया ने चबेना और नमक लाकर रख दिया और सभी आशा-भरी आंखों से उसकी ओर ताकने लगीं। झुनिया भी चौखट पर आ खड़ी हुई थी। होरी उदास बैठा था। कैसे मुंह-हाथ धोए, कैसे चबेना खाए। ऐसा लज्जित और ग्लानित था, मानो हत्या करके आया हो।

धनिया ने पूछा-कितने की तौल हुई?

'एक सौ बीस मिले, पर सब वहीं लुट गएधेला भी न बचा।'

धनिया सिर से पांव तक भस्म हो उठी। मन में ऐसा उद्वेग उठा कि अपना मुंह नोंच ले। बोली-तुम जैसा घामड़ आदमी भगवान् ने क्यों रचा, कहीं मिलते तो उनसे पूछती। तुम्हारे साथ सारी जिंदगी तलख हो गई, भगवान् मौत भी नहीं देते कि जंजाल से जान छूटे। उठाकर सारे रुपये बहनोइयों को दे दिए। अब और कौन आमदनी है, जिससे गोई आएगी? हल में क्या मुझे जोतो, या आप जुतोगे? मैं कहती हूं, तुम बूढ़े हुए, तुम्हें इतनी अक्ल भी नहीं आई कि गोई-भर के रुपये तो निकाल लेते। कोई तुम्हारे हाथ से छीन थोड़े लेता। पूस की यह ठंड और