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पृष्ठ:गोदान.pdf/२०४

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204 : प्रेमचंद रचनावली-6
 


दादा?

होरी ने कातर कंठ से कहा-यही आठ-नौ साल हुए होंगे।

गोबर ने छाती पर हाथ रखकर कहा-नौ साल में तीस के दो सौ। एक रुपये के हिसाब से कितना होता है?

उसने जमीन पर एक ठीकरे से हिसाब लगाते हुए कहा—दस साल में छत्तीस रुपये होते हैं। असल मिलाकर छाछठ। उसके सत्तर रुपये ले लो। इससे बेसी में एक कौड़ी न दूंगा।

दातादीन ने होरी को बीच में डालकर कहा-सुनते हो होरी, गोबर का फैसला? मैं अपने दो सौ छोड़ के सत्तर ले लूं, नहीं अदालत करूं। इस तरह का व्यवहार हुआ तो कै दिन संसार चलेगा? और तुम बैठे सुन रहे हो, मगर यह समझ लो, मैं ब्राह्मण हूं, मेरे रुपये हजम करके तुम चैन न पाओगे। मैंने ये सत्तर रुपये भी छोड़े, अदालत भी न जाऊंगा, जाओ। अगर मैं ब्राह्मण हूं, तो पूरे दो सौ रुपये लेकर दिखा दूंगा, और तुम मेरे द्वार पर आवोगे और हाथ बांधकर दोगे।

दातादीन झल्लाए हुए लौट पड़े। गोबर अपनी जगह बैठा रहा। मगर होरी के पेट में धर्म की क्रांति मची हुई थी। अगर ठाकुर या बनिए के रुपये होते, तो उसे ज्यादा चिंता न होती, लेकिन ब्राह्मण के रुपये। उसकी एक पाई भी दब गई, तो हड्डी तोड़कर निकलेगी। भगवान् न करें कि ब्राह्मण का कोप किसी पर गिरे। बंस में कोई चुल्लू-भर पानी देने वाला, घर में दिया जलाने वाला भी नहीं रहता। उसका धर्म-भीरू मन त्रस्त हो उठा। उसने दौड़कर पंडितजी के चरण पकड़ लिए और आर्त्त स्वर में बोला-महराज, जब तक मैं जीता हूं, तुम्हारी एक-एक पाई चुकाऊंगा। लड़के की बातों पर मत जाओ। मामला तो हमारे-तुम्हारे बीच में हुआ है। वह कौन होता है?

दातादीन जरा नरम पड़े-जरा इसकी जबर्दस्ती देखो, कहता है, दो सौ रुपये के सत्तर लो या अदालत जाओ। अभी अदालत की हवा नहीं खाई है, जभी। एक बार किसी के पाले पड़ जाएंगे, तो फिर यह ताव न रहेगा। चार दिन सहर में क्या रहे, तानासाह हो गए।

'मैं तो कहता हूं महाराज, मैं तुम्हारी एक-एक पाई चुकाऊंगा।'

'तो कल से हमारे यहां काम करने आना पडे़गा।'

'अपनी ऊख बोना है महाराज, नहीं तुम्हारा ही काम करता।'

दातादीन चले गए तो गोबर ने तिरस्कार की आंखों से देखकर कहा-गए थे देवता को मनाने। तुम्हीं लोगों ने तो इन सबों का मिजाज बिगाड़ दिया है। तीस रुपये दिए, अब दो सौ रुपये लेगा। और डांट ऊपर से बताएगा और तुमसे मजूरी कराएगा और काम कराते-कराते मार डालेगा।

होरी ने अपने विचार में सत्य का पक्ष लेकर कहा-नीति हाथ से न छोड़ना चाहिए बेटा। अपनी-अपनी करनी अपने साथ है। हमने जिस ब्याज पर रुपये लिए, वह तो देने ही पड़ेंगे। फिर बाह्यण ठहरे। इनका पैसा हमें पचेगा? ऐसा माल तो इन्हीं लोगों को पचता है।

गोबर ने त्योरियां चढ़ाईं-नीति छोड़ने को कौन कह रहा है? और कौन कह रहा है कि ब्राह्मण का पैसा दबा लो? मैं तो यह कहता हूं कि इतना सूद नहीं देंगे। बंक वाले बारह आने सूद लेते हैं। तुम एक रुपया ले लो। और क्या किसी को लूट लोगे?

‘उनका रोयां जो दु:खी होगा?'

'हुआ करे। उनके दु:खी होने के डर से हम बिल क्यों खोदें?'