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210 : प्रेमचंद रचनावली-6
 


काम भी करना ही पड़ता है। वहां रुपये-पैसे हाथ में आएंगे, मजे से चिकना खायगी, चिकना पहनेगी और टांग फैलाकर सोएगी। दो आदमियों की रोटी पकाने में क्या लगता है, वहां तो पैसा चाहिए। सुना, बाजार में पकी-पकाई रोटियां मिल जाती हैं। यह सारा उपद्रव उसी ने खड़ा किया है, सहर में कुछ दिन रह भी चुकी है। वहां का दाना-पानी मुंह लगा हुआ है। यहां कोई पूछता न था। यह भोंदू मिल गया। इसे फांस लिया। जब यहां पांच महीने का पेट लेकर आई थी, तब कैसी म्यांव-म्यांव करती थी। तब यहां सरन न मिली होती, तो आज कहीं भीख मांगती होती। यह उसी नेकी का बदला है। इसी चुड़ैल के पीछे डांड़ देना पड़ा, बिरादरी में बदनामी हुई, खेती टूट गई, सारी दुर्गत हो गई। और आज यह चुड़ैल जिस पत्तल में खाती है, उसी में छेद कर रही है। पैसे देखे तो आंख हो गई। तभी ऐंठी-ऐंठी फिरती है, मिजाज नहीं मिलता। आज लड़का चार पैसे कमाने लगा है न। इतने दिनों बात नहीं पूछी, तो सांस का पांव दबाने के लिए तेल लिए दौड़ती थी। डाइन उसके जीवन की निधि को उसके हाथ से छीन लेना चाहती है।

दुखित स्वर में बोली-यह मंतर तुम्हें कौन दे रहा है बेटा, तुम तो ऐसे न थे। मां-बाप तुम्हारे ही हैं, बहनें तुम्हारी ही हैं, घर तुम्हारा ही है। यहां बाहर का कौन है? और हम क्या बहुत दिन बैठे रहेंगे? घर की मरजाद बनाए रखोगे, तो तुम्हीं को सुख होगा। आदमी घरवालों ही के लिए धन कमाता है कि और किसी के लिए? अपना पेट तो सुअर भी पाल लेता हैं। मैं न जानती थी, झुनिया नागिन बनकर हमीं को डसेगी।

गोबर ने तिनककर कहा-अम्मां, मैं नादान नहीं हूं कि झुनिया मुझे मंतर पढ़ाएगी। तुम उसे नाहक कोस रही हो। तुम्हारी गिरस्ती का सारा बोझ मैं नहीं उठा सकता। मुझसे जो कुछ हो सकेगा तुम्हारी मदद कर दूंगा, लेकिन अपने पांवों में बेड़ियां नहीं डाल सकता।

झुनिया भी कोठरी से निकलकर बोली-अम्मां जुलाहे का गुस्सा डाढ़ी पर न उतारो। कोई बच्चा नहीं है कि मैं फोड़ लूंगी। अपना-अपना भला-बुरा सब समझते हैं। आदमी इसीलिए नहीं जनम लेता कि सारी उमर तपस्या करता रहे और एक दिन खाली हाथ मर जाए। सब जिंदगी का कुछ सुख चाहते हैं, सबकी लालसा होती है कि हाथ में चार पैसे हों।

धनिया ने दांत पीसकर कहा-अच्छा झुनिया, बहुत गियान न बघार। अब तू भी अपना भला-बुरा सोचने जोग हो गई है। जब यहां आकर मेरे पैरों पर सिर रक्खे रो रही थी, तब अपना भला-बुरा नहीं सूझा था? उस घड़ी हम भी अपना भला-बुरा सोचने लगते, तो आज तेरा कहीं पता न होता।

इसके बाद संग्राम छिड़ गया। ताने-मेहने, गाली-गलौच, थुक्का-फजीहत कोई बात न बची। गोबर भी बीच-बीच में डंक मारता जाता था। होरी बरौठे में बैठा सब कुछ सुन रहा था। सोना और रूपा आंगन में सिर झुकाए खड़ी थीं, दुलारी, पुनिया और कई स्त्रियां बीच-बचाव करने आ पहुंची थीं। गर्जन के बीच में कभी-कभी बूंदें भी गिर जाती थीं। दोनों ही अपने-अपने भाग्य कोस रही थीं। दोनों ही ईश्वर को कोस रही थीं, और दोनों अपनी-अपनी निर्दोषिता सिद्ध कर रही थीं। झुनिया गड़े मुर्दे उखाड़ रही थी। आज उसे हीरा और सोभा से विशेष सहानुभूति हो गई थी, जिन्हें धनिया ने कहीं का न रखा था। धनिया की आज तक किसी से न पटी थी, तो झुनिया से कैसे पट सकती है? धनिया अपनी सफाई देने की चेष्टा कर रही थी, लेकिन जाने क्या बात थी कि जनमत झुनिया की ओर था। शायद इसलिए कि झुनिया संयम हाथ से