सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गोदान.pdf/२२३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
गोदान : 223
 

मालती का मुख लाल हो गया। खन्ना घबराए, हेकड़ी जाती रही, पर इसके साथ ही उन्हें यह भी मालूम हुआ कि अगर वह कांटों में फंस गए हैं, तो मालती दलदल में फंस गई है, अगर उनकी थैलियों पर संकट आ पड़ा है तो मालती की प्रतिष्ठा पर संकट आ पड़ा है, जो थैलियों से ज्यादा मूल्यवान है। तब उनका मन मालती की दुरवस्था का आनंद क्यों न उठाए? उन्होंने मालती को अरदब में डाल दिया था और यद्यपि वह उसे रुष्ट कर देने का साहस खो चुके थे, पर दो-चार खरी-खरी बातें कर सुनाने का अवसर पाकर छोड़ना न चाहते थे। यह भी दिखा देना चाहते थे कि मैं निरा भोंदू नहीं हूं। उसका रास्ता रोककर बोले-तुम मुझ पर इतनी कृपालु हो गई हो, इस पर मुझे आश्चर्य हो रहा है मालती।

मालती ने भवें सिकोड़कर कहा-मैं इसका आशय नहीं समझी।

'क्या अब मेरे साथ तुम्हारा वही वर्ताव हैं, जो कुछ दिन पहले था?'

'मैं तो उसमें कोई अंतर नहीं देखती।'

'लेकिन मैं तो आकाश-पाताल का अंतर देखता हूं।'

'अच्छा मान लो, तुम्हारा अनुमान ठीक हैं, तो फिर? मैं तुझसे एक शुभकार्य में सहायता मांगने आई हूं, अपने व्यवहार की परीक्षा देने नहीं आई हूं। और अगर तुम समझते हो, कुछ चंदा देकर तुम यश और धन्यवाद के सिवा और कुछ पा सकते हो, तो तुम भ्रम में हो।'

खन्ना परास्त हो गए। वह एक ऐसे संकरे कोने में फंस गए थे, जहां इधर-उधर हिलने का भी स्थान न था। क्या वह उससे यह कहने का साहस रखते हैं कि मैंने अब तक तुम्हारे ऊपर हजारों रुपये लुटा दिए, क्या उसका यही पुरस्कार है? लज्जा से उनका मुंह छोटा-सा निकल आया, जैसे सिकुड़ गया हो। झेंपते हुए बोले-मेरा आशय यह न था मालती, तुम बिल्कुल गलत समझीं।

मालती ने परिहास के स्वर में कहा-खुदा करे, मैंने गलत समझा हो, क्योंकि अगर मैं उसे सच समझा लूंगी तो तुम्हारे साये से भी भागूंगी। मैं रूपवती हूं। तुम भी मेरे अनेक चाहने वालों में से एक हो। वह मेरी कृपा थी कि जहां मैं औरों के उपहार लोटा देती थी, तुम्हारी सामान्य-से-सामान्य चीजें भी धन्यवाद के साथ स्वीकार कर लेती थी, और जरूरत पड़ने पर तुमसे रुपये भी मांग लेती थी। अगर तुमने अपने धनोन्माद में इसका कोई दूसरा अर्थ निकाल लिया, तो मैं तुम्हें क्षमा करूंगी। यह पुरुष-प्रकृति है अपवाद नहीं, मगर यह समझ लो कि धन ने आज तक किसी नारी के हृदय पर विजय नहीं पाई, और न कभी पाएगा।

खन्ना एक एक शब्द पर मानो गज गज भर नीचे धंसते जाते थे। अब और ज्यादा चोट सहने का उनमें जीवट न था। लज्जित होकर बोले-मालती, तुम्हारे पैरों पड़ता हूं, अब और जलील न करो। और न सही तो मित्र-भाव तो बना रहने दो।

यह कहते हुए उन्होंने दराज से चैकबुक निकाली और एक हजार लिखकर डरते-डरते मालती की तरफ बढ़ाया।

मालती ने चेक लेकर निर्दय व्यंग किया-यह मेरे व्यवहार का मूल्य है या व्यायामशाला का चंदा?

खन्ना सजल आंखों से बोले-अब मेरी जान बख्शो मालती, क्यों मेरे मुंह में कालिख पोत रही हो।

मालती ने जोर से कहकहा मारा-देखो, डांट बताई और एक हजार रुपये भी वसूल किए।