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पृष्ठ:गोदान.pdf/२४१

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गोदान : 241
 


उठते मगर बेचारा पचासों जूते खाकर भी कुछ न बोला। आंखों में आंसू भरे, मेरी ओर गरीबों की तरह ताकता हुआ चला गया। तब महतो मुझ पर बिगड़ने लगे। सैकड़ों गालियां दीं, मगर मैं क्यों सुनने लगी थी? मुझे उनका क्या डर था? मैंने सफा कह दिया-महतो, दो तीन सौ कोई भारी रकम नहीं है, और होरी महतो इतने में बिक न जायंगे, न तुम्हीं धनवान हो जाओगे, वह सब धन नाच-तमासे में ही उड़ जायगा। हां, ऐसी बहू न पाओगे।

सोना ने सजल नेत्रों से पूछा-महतो इतनी ही बात पर उन्हें मारने लगे?

सिलिया ने यह बात छिपा रखी थी। ऐसी अपमान की बात सोना के कानों में न डालना चाहती थी, पर यह प्रश्न सुनकर संयम न रख सकी। बोलो-वही गोबर भैया वाली बात थी। महतो ने कहा-आदमी जूठा तभी खाता है, जब मीठा हो। कलंक चांदी से ही धुलता है। इस पर मथुरा बोला-काका, कौन घर कलंक से बचा हुआ है? हां, किसी का खुल गया, किसी का छिपा हुआ है। गौरी महतो भी पहले एक चमारिन से फंसे थे। उससे दो लड़के भी हैं। मथुरा के मुंह से इतना निकलना था कि डोकरे पर जैसे भूत सवार हो गया। जितना लालची है, उतना ही क्रोधी भी है। बिना लिए न मानेगा।

दोनों घर चलीं। सोना के सिर पर चरखा, रस्सा और जुए का भारी बोझ था, पर इस समय वह उसे फूल से भी हल्का लग रहा था। इसके अंतस्तल में जैसे आनंद और स्फूर्ति का सोता खुल गया हो। मथुरा की वह वीर मूर्ति सामने खड़ी थी, और वह जैसे उसे अपने हृदय में बैठाकर उसके चरण आंसुओं से पखार रही थी। जैसे आकाश की देवियां उसे गोद में उठाए, आकाश में छाई हुई लालिमा लिए चली जा रही हों।

उसों रात का सोना को बड़े जोर का ज्वर चढ़ आया।

तीसरे दिन गौरी महतो ने नाई के हाथ एक पत्र भेजा-

'स्वस्ती श्री सर्वोपमा जोग श्री होरी महतो को गौरीराम का राम राम बांचना। आगे जो हम लोगों में दहेज की बातचीत हुई थी, उस पर हमने सांत मन से विचार किया, समझ में आया कि लेन-देन से वर और कन्या दोनों ही के घरवाले जेरवार होते हैं। जब हमारा-तुम्हारा संबंध हो गया, तो हमें ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि किसी को न अखरे। तुम दान-दहेज की कोई फिकर मत करना, हम तुमको सौगंध देते हैं। जो कुछ मोटा-महीन जुरे, बरातियों को खिला देना। हम वह भी न मांगेंगे। रसद का इंतजाम हमने कर लिया है। हां, तुम खुसी-खुर्रमी से हमारी जो खातिर करोगे। वह सिर झुकाकर स्वीकार करेंगे।'

होरी ने पत्र पढ़ा और दौड़े हुए भीतर जाकर धनिया को सुनाया। हर्ष के मारे उछला पड़ता था, मगर धनिया किसी विचार में डूबी बैठी रही। एक क्षण के बाद बोली-यह गौरी महतो की भलमनसी है, लेकिन हमें भी तो अपने मरजाद का निबाह करना है। संसार क्या कहेगा। रुपया हाथ का मैल है। उसके लिए कुल-मरजाद नहीं छोड़ा जाता। जो कुछ हमसे हो सकेगा, देंगे और गौरी महतो को लेना पड़ेगा। तुम यही जवाब लिख दो। मां-बाप की कमाई में क्या लड़की का कोई हक नहीं है? नहीं, लिखना क्या है, चलो, मैं नाई से संदेसा कहलाए देती हूं।

होरी हतबुद्धि-सा आंगन में खड़ा था और धनिया उस उदारता की प्रतिक्रिया में, जो गौरी महतो की सज्जनता ने जगा दी थी, संदेशा कह रही थी। फिर उसने नाई को रस पिलाया और बिदाई देकर विदा किया।

वह चला गया तो होरी ने कहा-यह तूने क्या कर डाला धनिया? तेरा मिजाज आज तक