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गोदान : 281
 


सबने एक स्वर में कहा-धन्य हो सरकार, धन्य हो।

सिलिया मालती के पांव दबाने लगी-सरकार कितनी दूर से आई हैं, थक गई होंगी।

मालती ने पांव खींचकर कहा-नहीं-नहीं, मैं थकी नहीं हूं। में तो हवागाड़ी पर आई हूं। मैं चाहती हूं, आप लोग अपने बच्चे लाएं, तो मैं उन्हें देखकर आप लोगों को बता दूं कि आप इन्हें कैसे तंदुरुस्त और नीरोग रख सकती हैं।

जरा देर में बीस पच्चीस बच्चे आ गए। मालती उनकी परीक्षा करने लगी। कई बच्चों की आंखें उठी थीं, उनकी आंखों में दवा डाली। अधिकतर बच्चे दुर्बल थे, जिसका कारण था, माता-पिता को भोजन अच्छा न मिलना। मालती को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि बहुत कम घरों में दूध होता था। घी के तो सालों दर्शन नहीं होते।

मालती ने यहां भी उन्हें भोजन करने का महत्व समझाया, जैसा वह सभी गांवों में किया करती थी। उसका जी इसलिए जलता था कि ये लोग अच्छा भोजन क्यों नही करते? उसे ग्रामीणों पर क्रोध आ जाता था। क्या तुम्हारा जन्म इसलिए हुआ है कि तुम मर मरकर कमाओ और जो कुछ पैदा हो, उसे खा न सको, जहां दो चार बैलों के लिए भाजन है, एक-दो गाय भैसों के लिए चारा नहीं है? क्यों ये लोग भोजन को जीवन की मुख्य वस्तु न समझकर उसे केवल प्राण रक्षा की वस्तु समझते हैं? क्यों सरकार से नहीं कहते कि नाम-मात्र के ब्याज पर रुपये देकर उन्हें सूदखोर महाजनों के पंजे से बचाए? उसने जिस किसी से पूछा, वहां मालूम हुआ कि उनकी कमाई बड़ा भाग महाजनों का कर्ज चुकाने में खर्च हो जाता है। बटवारे का मरज भी बढ़ता जाता है। आपस में इतना वैमनम्य था कि शायद ही कोई दो भाई एक साथ रहते हों, उनकी इस दुर्दशा का कारण बहुत कुछ उनकी संकीणर्ता और स्वार्थपरता थी। मालती इन्ही विषयों पर महिलाओं से बातें करती रही। उनकी श्रद्धा देख-देख कर उसके मन में सेवा की प्रेरणा और भी प्रबल हो रही थी। इस त्यागमय जीवन के सामने वह विलासी जीवन कितना तुच्छ और बनावटी था। आज उसके वह रेशमी कपड़े, जिन पर जरी का काम था, और वह सुगन्ध से महकता हुआ शरीर, और वह पाउडर से अलंकृत मुख-मंडल, उसे लज्जित करने लगा। उसकी कलाई पर बंधी सोने की घड़ी जैसे अपने अपलक नेत्रों से उसे घूर रही थी। उसके गले में चमकता हुआ जड़ाऊ नेकलेस मानो उसका गला घोंट रहा था। इन त्याग और श्रद्धा की देवियों के सामने वह अपनी दृष्टि में नीची लग रही थी। वह इन ग्रामीणों से बहुत-सी बातें ज्यादा जानती थी, समय की गति ज्यादा पहचानती थी, लेकिन जिन परिस्थितियों में ये गरीबिनें जीवन को सार्थक कर रही हैं, उनमें क्या वह एक दिन भी रह सकती है? जिनमें अहंकार का नाम नहीं, दिन भर काम करती हैं, उपवास करती हैं, रोती हैं, फिर भी इतनी प्रसन्न मुख! दूसरे उनके लिए इतने अपने हो गए हैं कि अपना अस्तित्व ही नहीं रहा। उनका अपनापन अपने लड़कों में, अपने पति में, अपने सम्बन्धियों में है। इस भावना की रक्षा करते हुए-इसी भावना का क्षेत्र और बढ़ाकर-भावी नारीत्व का आदर्श निर्माण होगा। जाग्रत देवियों में इसकी जगह आत्म-सेवन का जो भाव आ बैठा है-सब कुछ अपने लिए, अपने भोग-विलास के लिए-उससे तो यह सुषुप्तावस्था ही अच्छी। पुरुष निर्दयी है, माना, लेकिन है तो इन्हीं माताओं का बेटा। क्यों माता ने पुत्र को ऐसी शिक्षा नहीं दी कि वह माता की, स्त्री-जाति की पूजा करता? इसीलिए कि माता को यह शिक्षा देनी नहीं आती, इसलिए कि उसने अपने को इतना मिटाया कि उसका रूप ही बिगड़ गया, उसका व्यक्तित्व ही नष्ट हो गया।

नहीं, अपने को मिटाने से काम न चलेगा। नारी को समाज कल्याण के लिए अपने अधिकारों की रक्षा करनी पड़ेगी, उसी तरह जैसे इन किसानों की अपनी रक्षा के लिए इस देवत्व का कुछ