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गोदान : 317
 


'निरास होने की कोई बात नहीं। बस, इतना ही समझ लो कि सुख में आदमी का धरम कुछ और होता है, दुःख में कुछ और। सुख में आदमी दान देता है, मगर दुख में भीख तक मांगता है। उस समय आदमी का यही धरम हो जाता है। सरीर अच्छा रहता है, तो हम बिना असनान-पूजा किए मुंह में पानी भी नहीं डालते, लेकिन बीमार हो जाते हैं, तो बिना नहाए-धोए, कपड़े पहने, खाट पर बैठे पथ्य लेते हैं। उस समय का यही धरम है। यहां हममें-तुममें कितना भेद है, लेकिन जगन्नाथपुरी में कोई भेद नहीं रहता। ऊंचे-नीचे सभी एक पंगत में बैठकर खाते हैं। आपत्काल में श्रीरामचन्द्र ने सबरी के जूठे फल खाए थे बालि का छिपकर बध किया था। जब संकट में बड़े-बड़ों की मर्जादा टूट जाती है तो हमारी-तुम्हारी कौन बात है? रामसेवक महतो को तो जानते हो न?'

होरी ने निरुत्साह होकर कहा-हां, जानता क्यों नहीं।

'मेरा जजमान है। बड़ा अच्छा जमाना है उसका। खेती अलग, लेन-देन अलग। ऐसे रोबदाब का आदमी ही नहीं देखा। कई महीने हुए उनकी औरत मर गई है। संतान कोई नहीं। अगर रुपिया का ब्याह उससे करना चाहो, तो मैं उसे राजी कर लूं। मेरी बात वह कभी न टालेगा। लड़की सयानी हो गई है और जमाना बुरा है। कहीं कोई बात हो जाय, तो मुंह में कालिख लग जाय। यह बड़ा अच्छा औसर है। लड़की का ब्याह भी हो जायगा और तुम्हारे खेत भी बच जायंगे। सारे खरच-बरच से बचे जाते हो।'

रामसेवक होरी से दो ही चार साल छोटा था। ऐसे आदमी से रूपा के ब्याह करने का प्रस्ताव ही अपमानजनक था। कहां फूल-सी रूपा और कहां वह बूढ़ा ठूंठ। जीवन में होरी ने बड़ी-बड़ी चोट सही थीं, मगर यह चोट सबसे गहरी थी। आज उसके ऐसे दिन आ गए हैं कि उससे लड़की बेचने की बात कही जाती है और उसमें इंकार करने का साहस नहीं है। ग्लानि से उसका सिर झुक गया।

दातादीन ने एक मिनट के बाद पूछा-तो क्या कहते हो?

होरी ने साफ जवाब न दिया। बोला-सोचकर कहूंगा।

'इसमें सोचने की क्या बात है?'

'धनिया से भी तो पूछ लूं।'

'तुम राजी हो कि नहीं?'

'जरा सोच लेने दो महाराज। आज तक कुल में कभी ऐसा नहीं हुआ। उसकी मरजाद भी तो रखना है।'

'पांच-छः दिन के अंदर मुझे जवाब दे देना। ऐसा न हो, तुम सोचते ही रहो और बेदखली आ जाय।'

दातादीन चले गए। होरी की ओर से उन्हें कोई अंदेशा न था। अंदेशा था धनिया की ओर से। उसकी नाक बड़ी लंबी है। चाहे मिट जाय, मरजाद न छोड़ेगी। मगर होरी हां कर ले तो वह रो-धोकर मान ही जायगी। खेतों के निकलने में भी तो मरजाद बिगड़ती है।

धनिया ने आकर पूछा-पंडित क्यों आए थे?

'कुछ नहीं, यही बेदखली की बातचीत थी।'

'आंसू पोंछने आए होंगे। यह तो न होगा कि सौ रुपये उधार दे दें।'

'मांगने का मुंह भी तो नहीं।'