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पृष्ठ:गोदान.pdf/३४३

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मंगलसूत्र : 343
 

साबित करोगे?

सिन्हा ने विश्वासपूर्ण भाव से कहा—यह सब में देख लूंगा। किताब लिखना और बात है, होश-हवास का ठीक रहना और बात में ता कहता हूँ, जितने लेखक हैं, मभी सनकी हैं—पूरे पागल, जो महज वाह-वाह के लिए यह पेशा माेल लेते हैं। अगर यह लोग अपने होश में हों तो किताबें न लिखकर दलाली करें, या खोंचे लगायें। यहां कुछ तो मेहनत का मुआवजा मिलेगा। पुस्तकें लिखकर ताे बदहजमी, तपेदिक ही हाथ लगता है। रुपये का जुगाड़ तुम करते जाओ, बाकी सारा काम मुझ पर छोड़ दाे। और हां आज शाम को क्लब में जरूर आना। अभी से कैम्पेन (मुहासरा) शुरू कर देना चाहिए। तिब्बी पर डोरे डालना शुरू करो। यह समझलो वह सब-जज साहब की अकेली लड़की है और उस पर अपना रंग जमा दो तो तुम्हारी गोटी लाल हैं। सब-जज साहब तिब्बी की बात कभी नहीं टाल सकते। मैं यह मरहला करने में तुमसे ज्यादा कुशल हैं। मगर मैं एक खून के मुआमले में पैरवी कर रहा हूं और सिविल सर्जन मिस्टर कामत की वह पीले मुंह वाली छोकरी आजकल मेरी प्रमिका है। सिविल सर्जन मेरी इतनी आवभगत करते हैं कि कुछ न पूछो। उस चुड़ैल से शादी करने पर आज तक कोई राजी न हुआ। इतने मोटे ओंठ हैं और सीना तो जैसे झुका हुआ सायबान हो। फिर भी आपका दावा है कि मुझसे ज्यादा रूपवती संसार में न होगी। औरतों का अपने रूप का घमंड कैसे हो जाता है, यह में आज तक न समझ सका। जो रूपवान् है वह घमड़ करे तो वाजिब हैं, लेकिन जिसका सुरत देखकर कै आए, वह कैंसे अपने को अप्सरा समझ लेती है। उसके पीछे पीछे घूमने और आशिकी करने जी तो जलता है, मगर गहरी रकम हाथ लगने वाली हे कुछ तपस्या तो करनी ही पड़ेगी। तिब्बी तो सचमुच अप्सरा है और चंचल भी। जरा मुश्किल से काबू में आयेगी। अपनी सारी कला खर्च करनी पड़ेगी।

—यह कला में खूब सीख चुका हो

—तो आज शाम को आना क्लब में।

—जरूर आऊंगा।

—रुपये का प्रबंध भी करना।

—वह तो करना ही पड़ेगा।

इस तरह सन्तकुमार और सिन्हा दोनों ने मुहासिरा डालना शुरू किया। सन्तकुमार न लंपट था, न रसिक, मगर अभिनय करना जानता था। रूपवान भी था जवान का मीठा भी, दोहरा शरीर, हंसमुख और जहीन चेहरा गोरा चिट्टा। जब सूट पहनकर छड़ी घुमाता हुआ निकलता ताे आंखों में खुब जाता था। टेनिस, ब्रिज आदि फैशनेबल खेल में निपुर्ण था ही, तिब्बी से राह-रस्म पैदा करने में उसे देर न लगी। तिब्बी यूनिवर्सिटी के पहले साल में भी बहुत ही तेज, बहुत ही मगरूर, बड़ी हाजिरजवाब उसे स्वाध्याय का शोक न था, बहुत थोड़ा पढ़ती थी, मगर संसार की गति से वाकिफ थी, और अपनी ऊपरी जानकारी को विद्वत्ता का रूप देना जानती थी। कोई विषय उठाइए, चाहे वह घोर विज्ञान ही क्यों न हो, उस पर भी वह कुछ-न-कुछ आलोचना कर सकती थी, कोई मौलिक बात कहने का उसे शौक था और प्रांजल भाषा में। मिजाज में नफासत इतनी थी कि सलीके या तमीज की जरा भी कभी उसे असह्य थी। उसके यहां कोई नौकर या नौकरानी न ठहरने पाती थी। दूसरों पर कड़ी आलोचना करने में उसे आनंद आता था, और उसकी निगाह इतनी तेज थी कि किसी स्त्री या पुरुष में जरा भी कुरुचि या भोंडापन