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पृष्ठ:गोदान.pdf/८१

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गोदान : 81
 


दूर के एक बहुत ऊंचे शिखर पर एक छोटा-सा मंदिर था, जो उस अगम्यता में बुद्धि की भांति ऊंचा, पर खोया हुआ-सा खड़ा था, मानो वहां तक पर मार कर पक्षी विश्राम लेना चाहता है और कहीं स्थान नहीं पाता।

मेहता इन्हीं विचारों में डूबे हुए थे कि युवती मिस मालती को साथ लिए आ पहुंची, एक वन-पुष्प की भांति धूप खिली हुई, दूसरी गमले के फूल की भांति धूप में मुरझाई और निर्जीव।

मालती ने बेदिली के साथ कहा-पीपल की छांह बहुत अच्छी लग रही है, क्यों और यहां भूख के मारे प्राण निकले जा रहे हैं।

युवती दो बड़े-बड़े मटके उठा लाई और बोली-तुम जब तक यहीं बैठो, मैं अभी दौड़कर पानी लाती हूं, फिर चूल्हा जला दूंगी, और मेरे हाथ का खाओ, तो मैं एक छन में बाटियां सेंक दूंगी, नहीं, अपने आप सेंक लेना। हां, गेहूं का आटा मेरे घर में नहीं है और यहां कहीं कोई दुकान भी नहीं है कि ला दें।

मालती को मेहता पर क्रोध आ रहा था। बोली-तुम यहां क्यों आकर पड़ रहे?

मेहता ने चिढ़ाते हुए कहा-एक दिन जरा जीवन का आनंद भी तो उठाओ। देखो, मक्के की रोटियों में कितना स्वाद है।

'मुझसे मक्के की रोटियां खाई ही न जायंगी, और किसी तरह निगल भी जाऊं तो हजम न होंगी। तुम्हारे साथ आकर मैं बहुत पछता रही हूं : रास्ते-भर दौड़ा के मार डाला और अब यहां लाकर पटक दिया।'

मेहता ने कपड़े उतार दिए थे और केवल एक नीला जांघिया पहने बैठे हुए थे। युवती को मटके ले जाते देखा, तो उसके हाथ से मटके छीन लिए और कुएं पर पानी भरने चले। दर्शन के गहरे अध्ययन में भी उन्होने अपने स्वास्थ्य की रक्षा की थी और दोनों मटके लेकर चलते हुए उनकी मांसल और चौड़ी छाती और मछलीदार जाँघें किसी यूनानी प्रतिमा के सुगठित अंगों की भांति उनके पुरुषार्थ का परिचय दे रही थीं। युवती उन्हें पानी खींचते हुए अनुराग-भरी आंखों से देख रही थी। वह अब उसकी दया के पात्र नहीं, श्रद्धा के पात्र हो गए थे।

कुआ बहुत गहरा था, कोई साठ हाथ, मटके भारी थे और मेहता कसरत का अभ्यास करते रहने पर भी एक मटका खीचते-खीचते शिथिल हो गए। युवती ने दौडकर उनके हाथ से रस्सी छीन ली और बोली-तुमसे न खिचेगा। तुम जाकर खाट पर बैठो , मैं खींचे लेती हूं।

मेहता अपने पुरुषत्व का यह अपमान न सह सके। रस्सी उसके हाथ से फिर ले ली और जोर मारकर एक क्षण में दूसरा मटका भी खीच लिया और दोनों हाथो में दोनों मटके लिए, आकर झोंपड़ी के द्वार पर खड़े हो गए। युवती ने चटपट आग जलाई, लालसर के पंख झुलस डाले। छुरे से उसकी बोटियां बनाईं और चूल्हे में आग जलाकर मांस चढ़ा दिया और चूल्हे के दूसरे ऐले पर कढ़ाई में दूध उबालने लगी। और मालती भौंहें चढ़ाए, खाट पर खिन्न-मन पड़ी इस तरह यह दृश्य देख रही थी, मानो उसके आपरेशन की तैयारी हो रही हो।

मेहता झोंपड़ी के द्वार पर खड़े होकर, युवती के गृह-कौशल को अनुरक्त नेत्रों से देखते हुए बोले-मुझे भी तो कोई काम बताओ, मैं क्या करूं?