सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/१३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गोरख-बानी १०५ माहरारे बैरागी जोगी, अहनिसि भोगीर, जोगणि संग न छाडै मानसरोवर मनसा झूलती श्रावै, गगन" मंडल मठ मांडै रे ॥टेका कौंण अस्थांनिकि तोरा सासू नैं सुसरा, कौंण अस्थांन क तोरा बासा । कौंण अस्थांन-क तू नै जोगणि भेटी, कहां मिल्या घर वासा । १ । नाभ अस्थांन-क मोरा सासू नैं सुसरा, ब्रह्म अस्थांन-क- मोरा वासा । इला प्यंगुला जोगण भेटी सुपमन मिल्या १ घर वासा । २। पसारा किया है (अर्थात् बेचने की सामग्री शून्य, कुछ नहीं है, दूसरे अर्थ में शून्य परब्रह्म है ।) मैं न लेना जानता न देना, ऐसा (एद्वा) तो हमारा वाणिज्य है (जिसमें लेने देने की आवश्यकता नहीं पड़ती।) मछन्दर का शिष्य कहता है कि ऐसे वाणिज्य का अर्थ यह है कि गुरु के वचनों के सहारे अपनी करनी के द्वारा मुक्ति लाभ करो ॥ १६॥ हमारा तो बैरागी जोगी (मन) रात दिन भोग में निरत रहता है। वह (मन) जोगी कभी भी जोगिन का साथ नहीं छोड़ता । मानस सरोवर (मन) में मनसा (इच्छा) झूलती (मस्त होकर ) आती है और गगन मंटन (ब्रह्मरंध्र ) में मढ़ी बना लेती है। हे जोगी (मन ) तेरे सास-ससुर किस स्थान के हैं, तेरा निवास स्थान कहाँ है, जोगिन से तेरो भेट कहाँ हुई, तुझे रहने का स्थान कहाँ मिला है। मेरे सास-ससुर नाभि ( मणिपूर चक्र) में रहने वाले हैं । मैं ब्रह्म स्थान (ब्रह्मरंध्र ) का निवासी हूँ । ( अर्थात् स्वयं परमात्मा तत्व हूँ।) इला पिंगला प्राणायाम के द्वारा मेरी जोगिन (कुंडलिनी) से भेट हुई और सुपुम्ना में मुझे निवास मिला। नाभि ( मणिपूर) में कुल कुंडलिनी शक्ति का निवास माना जाता है इसी शक्ति (मूल या श्रादि माया) के द्वारा सृष्टि का निर्माण हुआ है। १. (घ) म्हारी। २. (घ) में 'अहनिसि भोगी नहीं है। ३. (५) छाड़े । ४. (घ) मनसा देवी झूमती। ५. (घ) गिगनि । ६. 'रे' नहीं है। ७. (घ) असयांनि यारा;। (क) किण। ८. (घ) में 'नै' नहीं है। इसके बाद (घ) में 'कौण अस्थान क तोरा वासा' से 'मोरा सासू नैं सुसरा तक नहीं है । ६. अस्थांनि । १०. (घ) यला पिंगुला नोगणि मेटी; (क) सुषमनां सङ्ग । ११. (घ) तहाँ भया। 3