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पृष्ठ:गोरख-बानी.djvu/१८१

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१४४ [गोरखबानी चांमैं चांम' घसंता लोई२, दिन दिन छीजै काया, आपा परचे गुर मुषि न चिन्हैं, फाड़ि फाडि बापणीं पाया ।२। बाघनी उपाया बाघनी निपाया बाघनी पाली काया। बाघनी ढाकरै जौरियो पाप, अनभुई गोरष राया ॥४८॥ रूप रूपे१० करूपे गुरदेव, बाघनी११ भोले भोले१२, जिन जननी १३ संसार दिपाया'४, ताकौं ५ ले सूते पोले ॥टेक।। भग राक्षसिन है, मग राक्षसिन है। उसने जगत को बिना दांतों के खा डाला है। जो ज्ञानी होता है, वह ज्ञान का श्राश्रय लेकर रहता है (और भग का भोजन बनने से बच जाता है। ) किंतु जगत के सामान्य जीव अपने आप (आत्मा) को अपने पाप गँवा देता है (नष्ट कर देता है।) दिन में पाधिन (माया कामिनी) सोयी रहती है अर्थात् शत्रुता का काम नहीं करती और रात में शरीर का शोषण करती है। विषय भोग का लोभी जीव इस वत्व को नहीं जानता, इसलिए वह बाधिन (माया) को घर में रक्खे उसका पोपण करता रहता है। संभोग के कारण लोक ( लोगों) का शरीर दिन दिन क्षीण होता चला जाता है। उन्होंने गुरु के मुख से प्रारमज्ञान (धारमा परिचय ) नहीं प्राप्त किया है। इसलिए वाधिन (माया) उन्हें फार फार कर खाया करती है। वाधिन ही ने काया को उपनाया है, उसी ने इसे पाला है। (पाठांतर से बाघिनी हो काया है।) यमराज के बगल में यह दहाती रएती है, यह गोरस राय का अनुभव है। उपाया-उत्पादित किया, निपाया=निष्पादित किया; डाकरैगर्जन करती है । हुकरना गढ़वाली में पैन और रीछ के शब्द करने को कहते हैं ॥८॥ रूप रूप में यहाँ तक कि कुरूप में भी, हे गुरुदेव (मत्स्येन्द्रनाथ ) बाधिन (माया) मोने रूम में विद्यमान रहती है। (वाहर से देखने में यह मोदी १. (घ) चांचे चांव । २. (घ) में 'लोई नहीं। उसके स्थान पर इतना और है-श्रालिंगण चूयतां । ३. (घ) गुरू । ४. (घ) नहीं । ५. (घ) वापयि। ६. (प) हमारी । ७. (घ) टाकलं जौरीया पापरे । ८. (घ) अनमवी । १०. (घ) रूपे रूप । ११. (घ) वागर । १२. (घ) भूले भोले । १३. (घ) जननी। १४. (प) दिपात्या । १५. (घ) ताईं।