सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गोरा.pdf/१८७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
[ १८७
गोरा

n गोरा [१८७ स्थित हुअा। किन्तु ललिताकी उत्तेजित-कल्पना वृत्तिको चोट पहुँचाने का भी साहस नहीं होता । जिस काममें वह उत्साह दिखाती है, उस काम में कहीं लेशमात्र भी असंपूर्णता घटित होनेसे वह एक दम उदास हो बैठती है-उसमें शरीक होना ही उसके लिए असम्भव हो उठता है । ललिता अपने मनकी इस बढ़ी हुई अवस्था सुचरिताके निकट अनेक बार व्यग्र हो गई है । सुचरिता हँसी है, बातें भी की है, किन्तु ललिताने उसके भीतर बारम्बार ऐसी एक बाधाका अनुभव किया है कि वह मन ही मन नाराज होकर वहांसे लौट आई है। एक दिन उसने परेश बाबूके पास जाकर कहा-बाबू जी तुची दीदी एक किनारे बैठे-बैठे किताब पढ़ें, और हम लोग अभिनय करने जाय, यह न होगा । उनको भी हमारा साथ देना होगा । परेश बाबू भी इधर कई दिनसे सोचते थे कि सुचरिता अपनी साथियों से जैसे कुछ दूर होती जा रही है। ऐसी अवस्था सुचरिताके लिए स्वास्थ्यकर नहीं,यह जान कर उन्हें एक आशङ्का सी हो रही थी। ललिताकी बात नुना कर अाज उन्हें जान पड़ा, आमोद-प्रमोदमें सबके साथ सम्मिलित न हो सकनेसे सुचरिताका यह अलगावका भाव प्रश्रय पाकर बढ़ जायगा । परेश बावूने ललितासे कहा-अपनी माँ से कहो। ललिताने कहा- -माँसे तो मैं कहूँगी, मगर सुची दादीको राजी करनेका भार आपको लेना पड़ेगा ! परेश बाबूने जब कहा, तो नुचरिता फिर कुछ नाहीं नहीं नहीं कर सकी। वह अपना कर्तव्य पालने के लिए अग्रसर हुई । सुचरिताके बाहर निकल कर सबके साथ शामिल होते ही विनयने उसके साथ पहलेकी तरह वार्तालाप जमानेकी चेष्टाकी, किन्तु इन्हीं कई दिनोंमें न जाने क्या हो गया कि अच्छी तरह उसे सुचरिताका रुख नहीं मिला। उसके मुखकी श्रीमें उसकी दृष्ठिमें ऐसा एक सुदूर व्यवधान का भाव प्रकट होता है कि उसके पास आगे बढ़ने में संकोच उपस्थित होता है। पहले भी मिलने जुलने और काम काजके भीतर सुचरिताका एक निलित