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पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/११

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तुलसी की भक्ति-पद्वति


संयोग' होता है और वे छायारूप में बहुत सी बातें देखते हैं। ईसाई धर्म में जब स्थूल एकेश्वरवाद (जो वास्तव में देववाद हो है ) के स्थान पर प्राचीन आर्य दार्शनिकों द्वारा प्रतिपादित 'सर्ववाद' ( Pantheism ) लेने की आवश्यकता हुई तब वह बुद्धि द्वारा प्रस्तुत ज्ञान के रूप में तो लिया नहीं जा सकता था, ईश्वर द्वारा रहस्यात्मक ढंग से प्रेषित ज्ञान के रूप में ही लिया जा सकता था। इससे परमात्मा और जीवात्मा के संबंध की वे ही बातें, जो यूनान या भारत के प्राचीन दार्शनिक कह गए थे, विलक्षण रूपकों द्वारा कुछ दुर्बोध और अस्पष्ट बनाकर संत लोग कहा करते थे। अस्पष्टता और असंबद्धता इसलिये आवश्यक थी कि तथ्यों का साक्षात्कार छाया-रूप में ही माना जाता था। इस प्रकार अरब, फारस तथा योरप में भावात्मक और ज्ञानात्मक रहस्यवाद का चलन हुआ।

भारत में धर्म के भीतर भी ज्ञान की प्रकृत पद्धति और प्रेम की प्रकृत पद्धति स्वीकृत थी अत: भावात्मक और ज्ञानात्मक रहस्यवाद की कोई आवश्यकता न हुई। साधनात्मक और क्रियात्मक रहस्य- वाद का अलबत योग, तंत्र और रसायन के रूप में विकास हुआ। इसके विकास में बौद्धों ने बहुत कुछ योग दिया था। हठयोग की. परंपरा बौद्धों की ही थी। मत्स्येंद्रनाथ के शिष्य गोरखनाथ ने उसे शैव रूप दिया। गोरखपंथ का प्रचार राजपूताने की ओर अधिक हुआ इसी से उस पंथ के ग्रंथ राजस्थानी भाषा में लिखे गए हैं। मुसलमानी शासन के प्रारंभ-काल में इसी पंथ के साधु उत्तरीय भारत में अधिक घूमते दिखाई देते थे जिनकी रहस्यभरी बातें हिंदू और मुसलमान दोनों सुनते थे। मुसलमान अधिकतर खड़ी बोली बोलते थे इससे इस पंथ के रमते साधु राजस्थानी मिली खड़ी बोली का व्यवहार करने लगे। इस प्रकार एक सामान्य सधुक्कड़ी भाषा बनी जिसका व्यवहार कबीर, दादू आदि निर्गुणी संतों ने किया।