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पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/१२७

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गोस्वामी तुलसीदास

हैं। इस प्रकार जिन परिस्थितियों के बीच वीर-जीवन का विकास होता है, उनकी परंपरा का निर्वाह हम क्रम से रामचरित में देखते राम और लक्ष्मण ये दो अद्वितीय वीर हम उस समय पृथ्वी पर पाते हैं। वीरता की दृष्टि से हम कोई भेद दोनों पात्रों में नहीं कर सकते। पर सीता के स्वयंवर में दोनों भाइयों के स्वभाव में जो पार्थक्य दिखाई पड़ा उसका निर्वाह हम अंत तक पाते हैं जनक के परिताप वचन पर उग्रता और परशुराम की बातों के उत्तर में जो चपलता हम लक्ष्मण में देखते हैं, उसे हम बराबर अवसर अवसर पर देखते चले जाते हैं। इसी प्रकार राम की जो धीरता और गंभीरता हम परशुराम साथ बातचीत करने में देखते हैं, वह बराबर आगे आनेवाले प्रसंगों में हम देखते जाते हैं। इतना देखकर तब हम कहते हैं कि राम का स्वभाव धीर और गंभीर था और लक्ष्मण का उग्र और चपल । . धीर गंभीर और सुशील अंत:करण की बड़ी भारी विशेषता यह होती है कि वह दूसरे में बुरे भाव का आरोप जल्दी नहीं कर सकता। सारे अवध-वासियों को लेकर भरत को चित्रकूट की ओर आते देख लक्ष्मण कहते हैं- कुटिल कुबंधु कु-अवसर ताकी । जावि राम बनबास एकाकी ॥ करि कुमंत्र मन, साजि समाजू । पाए करइ अकंटक राजू ॥ और तुरंत इस अनुमान पर उनकी त्योरी चढ़ जाती है- जिामे करि-निकर दरइ मृगराजू । लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू ॥ तैसंहि भरतहि सेन समेतः । सानुन निदरि निपातउँ खेता ।। पर राम के मन में भरत के प्रति ऐसा संदेह होता ही नहीं है। अपनी सुशोलता कं बल उन्हें उनकी सुशोलता पर पूरा विश्वास है। वे तुरंत समझाते हैं- सुनहु लषन भल भरत सरीसा । बिधि-प्रपंच महँ सुना न दीसा ।।