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पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/३३

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लोक- धर्म

लोक-धर्म धर्म-व्यवस्था के बीच ऐसी विषमता उत्पन्न करनेवाले नए नए पंथों के प्रति इसी से उन्होंने अपनी चिढ़ कई जगह प्रकट की है; जैसे- स्रुति-सम्मत हरिभक्ति-पथ, संजुत बिरति बिवेक । तेहि परिहरहिं बिमोह-बस कल्पहिं पंथ अनेक ॥ - साखी, सबदी, दोहरा, कहि किहनी उपखान । भगत निरूपहिं भगति कलि, निंदहिं बेद पुरान ॥ उत्तरकांड में कलि के व्यवहारों का वर्णन करते हुए वे इस प्रसंग में कहते हैं- बादहि शूद द्विजन सन हम तुमतें कछु घाटि । जानहि ब्रह्म सो बिप्रबर, अाखि दिखावहिं डॉटि ।। जो बातें ज्ञानियों के चितन के लिये थी, उन्हें अपरिपक्क रूप में अनधिकारियों के आगे रखने से लोक-धर्म का तिरस्कार अनिवार्य था। 'शूद्र' शब्द से जाति की नीचता मात्र से अभिप्राय नहीं है; विद्या, बुद्धि, शील, शिष्टता, सभ्यता सबकी सं है। समाज में मूर्खता का प्रचार, बल और पौरुष का ह्रास, अशिष्टता की वृद्धि, प्रतिष्ठित आदर्शों की उपेक्षा कोई विचारवान् नहीं सहन कर सकता। गोस्वामीजी सच्चे भक्त थे। भक्ति-मार्ग की यह दुर्दशा वे कब देख सकते थे ? लोकविहित आदर्शों की प्रतिष्ठा फिर से करने के लिये, भक्ति के सच्चे सामाजिक आधार फिर से खड़े करने के लिये, उन्होंने रामचरित का आश्रय लिया जिसके बल से लोगों ने फिर धर्म के जीवन-व्यापी स्वरूप का साक्षात्कार किया और उस पर मुग्ध हुए। कलिकलुष-विभंजिनी” राम-कथा घर घर धूम-धाम से फैली । हिदू- धर्म में नई शक्ति का संचार हुआ । “स्रुति-सम्मत हरिभक्ति” की ओर जनता फिर से आकर्षित हुई। रामचरितमानस के प्रसाद से उत्तर भारत में सांप्रदायिकता का वह उच्छृखल रूप अधिक न ठहरने ,