सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:गोस्वामी तुलसीदास.djvu/५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
४७
लोक- नीति और मर्यादावाद

साथी होता है; ईश्वरांश नाने जाने पर भी मनुव्यांश नहीं छोड़ता। वह प्रजा के जीवन से दूर बैठा हुआ. उसमें किसी प्रकार का योग न देनेवाला खिलौना या पुतला नहीं है। प्रजा अपने सब प्रकार कं उच्च भावों का त्याग का, शोल का, पराक्रम का, सहिष्णुता का, क्षमा का-प्रतिबिंब उसमें देखती है। राजा के पारिवारिक और व्यावहारिक जीवन को देखने की मजाल प्रजा को थी-देखने की ही नहीं. उस पर टीका-टिप्पणी करने की भी। राजा अपने पारिवारिक जीवन में भी यदि कोई ऐसी बात पावे जो प्रजा को देखने में अच्छी न लगती हो, सुधार आदर्श-रक्षा के लिये कर्त्तव्य माना जाता था । सती सीता के चरित्र पर दोषारोप करनेवाले धाबी का सिर नहीं उड़ाया गया; घोर मानसिक व्यथा सहकर भी उस दोष के परिहार का यत्न किया गया। सारांश यह कि माता, पिता, सेवक और सखा के साथ भी जो व्यवहार राजा का हो, वह ऐसा हो जिसकी उच्चता को देख प्रजा प्रसन्न हो, धन्य धन्य कहे । जिस प्रोति और कृतज्ञता के साथ महाराज रामचंद्र ने सुग्रीव, विभीषण और निषाद आदि को बिदा किया, उसे देख प्रजा गद्गद हो गई- रघुपति-चरित देखि पुरवासी । पुनि पुनि कहहिं धन्य सुखरासी॥ राजा की शील-शक्ति के प्रभाव के वर्णन में गोस्वामीजी ने कवि-प्रथा के अनुसार कुछ अतिशयोक्ति भी की ही है- फूलहि फलहिं सदा तरु कानन । रहहि एक सँग गज पंचानन ॥ खग मृग सहज बयरु बिसराई । सबन्हि परस्पर प्रीनि बढाई ॥ काव्य-पद्धति से परिचित इसे पढ़कर कभी यह सवाल नहीं करेंगे कि मृगों का मारना छोड़ सिंह क्या घास खाकर जीते थे ? देखिए, राजकुल की महिलाओं के इस उच्च आदर्श का प्रभाव जनता के पारिवारिक जीवन पर कैसा सुखद पड़ सकता है- .