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पृष्ठ:चंदायन.djvu/१४४

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१३४ होता है। हरियाँत-हलवा हरा रंग; ऐसा रंग जिसमें हरीतिमा को आमा हो। (३) पखारी--पर से युक्त । (रीलैग्म ५७) सिफ्ते पीलाने राव स्पचन्द गोपद (राक्ष रूपचन्द के हापी) पखरे हस्त दाँत बहिराये । धानुक लै ऊपर साये ॥१ वनखंड जैस चले अतिकारे । आने जानु मेघ अँधकारे ॥२ चलन लाग जनु चलहिं पहारा । छाँह परै जग भा अँधियारा ॥३ झेंकरहि चोटहिं आँकुस लागे । बरु दस कोस सहस अग भागे।।४ जो कोहि तो राइ सँघारहिं । वन तरुवर जर मूर उपारहिं ॥५ सीकर पाइ पानि उठ, रै काँदो होइ ६ राउ रूपचंद कोपा, तेग न पारे कोइ ॥७ टिप्पणी-(१) पसरे-पाखर; हाधीके दोनों गलेको लोहेवी इल । यहिराये- निकाले हुए । धानुक-धनुषधारी सैनिक । (४) भग-आगे। (१) जर मूर-जड़मूल । (६) काँदो-वीचड़ । १०० (रोलेण्ट्स ५८) सिमने च कर्दने राव बालरे पहिरा (सेनाकी कूर) सवही गजदल भयउ पयाना । ठोके तवल देउ अँगराना ॥१ अकछत फौज चलें असवारा । कोस वीस लग भयउ पसारा ॥२ आगे परे नीर सीर पावइ । पाछे रहे सो धर पकावइ ॥३ सगरें देस अइस डर छावा । समै नराई राउ चल आवा ॥४ उठे खेह अरु सूझ न पागा । जानु सरग धरती होड़ लागा ॥५