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पृष्ठ:चंदायन.djvu/१४६

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१३६ दीन्हि मड़ि देउर उपराई । पैसथ नारा पोखर पाई ॥४ काटे बारी महर के लाई । नरियर गोवा और फुलराई ॥५ महर मंदिर चढ़ देखा, बहुल हुत असवार ६ ओडन फिर न सूझे, खॉडहि होइ झनकार ॥७ मूल पाट-पति के दाने पदोये अन्तिम दाद मश. उपरायउँ और पायउँ पढे लाते हैं। पर साथ ही पहले पदका अन्तिम शब्द यउ ६ ऊपर ई भी लिया है । वस्तुत उपराई पाठ ही सगत है। उसी के अनुसार उत्तर पढये अन्तिम शब्द का पार पाई दिया गया है। टिप्पणी--(१) ऐका---घेरा । गाद-ठिन । फिरावा-पैलाया । (२) तुरह-तोट डाला । पनवारी-पान सेत। फेतिह--क्तिने हो। रूस-वृक्ष। (३) अबराऊँ-आनाराभ, आम के बगीचे । धार-ताड । जाम-जम्यु, मुग । लवराऊँ-(लशाराम>लदानाराम> सराउँ) एक लास- भोग बगीचा। (४) मदि-गठ । देउर-(सं० देवल>प्रा० देउल> देउर) देवगृह, मन्दिर । नारा-नारा । पोपर-गुप्पर, ताला। (५) वारी-नगीना । नारियर-नारियल । गोवा-गुपारी । फुलवाई- पुलपारी। (७) भीडन-दाल | साँट लम्बी मीधी तत्वार जिसे सैनिक हाथमें पर चलते है। (रोरैण्डम ६.) त नाटन दर शहर व गिरिम्तादने महर रयूनान रा र राह महर __ (नगरम अतंक-राय रूपचन्दवे पास दूतका जाना) वॉधे पार भई राहतारा । यापहि पूत न कोउ सँभारा ॥? महर लोग मत्र- झार हॅकारे । माझे चेत तनै पिसारे ॥२ गाय. भैइसे बाँधे परिरियाई राँधा भात न कोऊ खाई ॥३ 'रोवहिं ही करव [अप] काहा। फरहुँ काँप सरापत आहा ।।४ छेक गाउँ ॲपराँउँ कटारहिं । पठिये वसीठ उतर कम पावहिं ॥५