सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:चंदायन.djvu/१५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१४४
 

१४ टूटहिं । राजहिं जहाँ पोक लग पूटहि ।। (पदमावत ५२४१३) में पोपको व्युत्पत्ति पुससे मान कर वानुदेवदारण अश्वात्ने साज में लगे पस विपा है। वृहद हिन्दी पोपमे इसे तीरके पीउकी ओर का सिरा बताया गया है। ये दोनों अर्थ भी सगत नहीं है । अंडमने- इलाम उर्दू रिसर्च इन्स्टीट्यूट (बम्बई) मे एक मध्यकालीन हिन्दी- अरवी-पारसी पोर को हसालसित प्रति है। उममे इस रददा अर्थ नुकीला बताया गया है। यही अर्थ रीक भी है। ११५ (रीलेण्ड्स ३) सिफ्ने रथे जगी गोपद (रप-वर्णन) साजे रथ पितानहि कड़े । सौ-सौ धानुक एक-एक चढ़े ॥१ हके आय इनैं सहँ धनै । तीन - चार सै भै गुनॆ ॥२ जोयन पीस गरलाइ चलावहिं । खिन एक माँझ यहुरि तिहँ आवहिं॥३ ठौर ठौर ले रन महँ धरे । जनु चोहित सागर महँ तिरे ॥४ स्थ क अरथ इछ किहँ कीन्हा । वर दर मुस ले लूँदा दीन्हा ॥५ देख युझार राइ के, गरधर रहे तैवाइ ६ बहुत से राइ औ राउत, पौद लोक मो आइ ॥७ टिप्पणी-(३) ओपन-योजन । (१) बोहित-जहाज | सापर-सागर । (रीलेण्ड्स ४) सिपते पीलान महर (ससि घर्गन) गज गवर्ने डर साँसों मयउ । चालुकि (नाग) पतारहिं गयउ ॥१ सिंफरत इँदरासन डर होई । कापहि पाउन अँगवइ कोई ।।२ चढ़े महावत कसे उपनारे । दाँत पतर मद् अँड सिंगारे ॥३