सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 2.djvu/३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
39
 

चाहा कि कब्रिस्तान के बाहर निकलकर भाग जाय मगर वह इतना डर गई थी कि पैर न उठा सकी। देखते-ही देखते वह भयंकर मूर्ति कमला के सामने आकर खड़ी हो गयी और कमला को डर के मारे काँपते देखकर बोली, "डर मत, होश ठिकाने कर और जो कुछ मैं कहती हूँ, उसे ध्यान देकर सुन!"


7

रोहतासगढ़ फतह होने की खबर लेकर भैरोंसिंह चुनार पहुँचे और उसके दो ही तीन दिन बाद राजा दिग्विजयसिंह की बेईमानी की खबर लेकर कई सवार भी जा पहुँचे। इस समाचार के पहुँचते ही चुनारगढ़ में खलबली पड़ गई। फौज के साथ ही साथ रिआया भी राजा वीरेन्द्रसिंह और उनके खानदान को दिल से चाहती थी, क्योंकि उनके जमाने में अमीर-गरीब सभी खुश रहते थे! आलिमों और कारीगरों की कदर की जाती थी, अदना से अदना भी अपनी फरियाद राजा के कान तक पहुँचा सकता था, उद्योगियों और व्यापारियों को दरबार से मदद मिलती थी, ऐयार और जासूस लोग छिपे-छिपे रिआया के दुःख-सुख का हाल मालूम करते और राजा को हर तरह की खबर पहुँचाते थे। शादी-ब्याह में इज्जत के माफिक हर एक को मदद मिलती थी और इसी से रिआया भी तन-मन-धन से राजा की मदद के लिए तैयार रहती थी। राजा वीरेन्द्रसिंह कैद हो गये, इस खबर को सुनते ही रिआया जोश में आ गई और इस फिक्र में हुई कि जिस तरह हो, राजा को छुड़ाना चाहिए।

रोहतासगढ़ के बारे में क्या करना चाहिए और दुश्मनों पर कैसे फतह पानी चाहिए, यह सब सोचने-विचारने के पहले महाराज सुरेन्द्रसिंह और जीतसिंह ने भैरोंसिंह, रामनारायण और चुन्नीलाल को हुक्म दिया कि तुम लोग तुरन्त रोहतासगढ़ जाओ और जिस तरह हो सके अपने को किले के अंदर पहुँचाकर राजा वीरेन्द्रसिंह को रिहा करो, हम दोनों में से भी कोई आदमी मदद लेकर शीघ्र पहुँचेगा।

हुक्म पाते ही तीनों ऐयार तेज और मजबूत घोड़ों पर सवार होकर रोहतासगढ़ की तरफ रवाना हुए और दूसरे दिन शाम को अपनी फौज में पहुँचे। राजा वीरेन्द्रसिंह की आधी, अर्थात् पच्चीस हजार फौज तो पहाड़ी के नीचे किले के दरवाजे की तरफ खड़ी हुई थी और बाकी आधी फौज पहाड़ी के चारों तरफ इसलिए फैला दी गयी थी कि राजा दिग्विजयसिंह को बाहर से किसी तरह की मदद न पहुँचने पाये। पाँच-पाँच, सात-सात सौ बहादुरों को लेकर नाहरसिंह कई दफे उस पहाड़ी पर चढ़ा और किले के दरवाजे तक पहुँचना चाहा, मगर किले के बुर्जों पर से आए हुए तोप के गोलों ने उसे वहाँ तक न पहुँचने दिया और हर दफे लौटना पड़ा। जाहिर में तो वे लोग सामने की तरफ अड़े हुए थे और घड़ी-घड़ी हमला करते थे, मगर नाहरसिंह के हुक्म से पाँच-पाँच, सात-सात करके बहुत से सिपाही, जासूस और सुरंग खोदने वाले जंगल-ही-जंगल रात के समय छिपे हुए रास्तों से पहाड़ पर चढ़ गये थे तथा बराबर चढ़े चले जाते थे और