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पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 3.djvu/१४८

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कि बेशक यही तीनों माधवी, मनोरमा और शिवदत्त हैं। इन सिपाहियों ने छठी सीढ़ी पर पैर नहीं रखा था कि नीचे से आवाज आई, "ठहरो, हम लोग खुद ऊपर आते हैं!"

उन सिपाहियों में से एक आदमी जिसका नाम रामचन्दर था शिवदत्त का पुराना खैरख्वाह मुलाजिम था और बाकी के दोनों सिपाही मनोरमा के नौकर थे। आवाज सुनकर तीनों सिपाही ऊपर चले आये और तहखाने के अन्दर वाले तीनों व्यक्ति भी, जिन्हें सिपाहियों ने अपना मालिक समझ रक्खा था, बाहर होकर क्रमशः उस कमरे में पहँचे जिसमें कमलिनी रहा करती थी और जिसे एक तौर पर दीवानखाना भी कह सकते हैं। यद्यपि लूट-खसोट का दिन था मगर फिर भी वहाँ इस समय रोशनी बखूबी हो रही थी और उस रोशनी में सभी ने बखूबी पहचान लिया कि वे वास्तव में माधवी, मनोरमा और शिवदत्त हैं।

इस समय दुश्मनों की खुशी का अन्दाजा करना बड़ा ही कठिन है क्योंकि जिसे छुड़ाने के लिए उन लोगों ने उद्योग किया था, उसे अपने सामने मौजूद देखते हैं, लाखों रुपये का माल जो लूट में मिला था, अब पूरा-पूरा हलाल समझते हैं, इसके अतिरिक्त इनाम पाने की प्रबल अभिलाषा और भी प्रसन्न किये देती है। चारों तरफ से भीड़ उमड़ी पड़ती है और शिवदत्त के पैरों पर गिरने के लिए सभी उतावले हो रहे हैं। शिवदत्त ने सभी की तरफ देखा और नर्म आवाज में कहा, "शाबाश मेरे बहादुर सिहाहियो, आज जो काम तुमने किया, वह मुझे जन्म भर याद रहेगा। निःसन्देह तुमने मेरी जान बचाई। देखो इस कैद की सख्ती ने मेरी क्या अवस्था कर दी है, मेरी आवाज कैसी कमजोर हो रही है, मेरा शरीर कैसा दुर्बल और बलहीन हो गया है, मगर खैर, कोई चिन्ता नहीं जान बची है तो ताकत भी हो रहेगी! यह मत समझो कि मैं इस समय हर तरह से लाचार हो रहा हूँ, अतएव तुम्हारी आज की कार्रवाई के बदले में कुछ इनाम नहीं दे सकूँगा। नहीं-नही, ऐसा कदापि न सोचना। तुम लोग स्वयं देखोगे कि कल जितनी दौलत मैं इनाम में तुम लोगों को दूँगा, वह उस लूट के माल से सौगुना ज्यादा होगी, जो तुमने इस मकान में से पाई होगी। मैं मर्द हूँ और तुम लोग खूब जानते हो कि मर्दो की हिम्मत कभी कम नहीं होती, जिसने हिम्मत तोड़ दी, वह मर्द नहीं औरत है। इसमें तुम इस बात पर भी विश्वास रखना कि मैं अपने पुराने दुश्मन वीरेन्द्रसिंह का पीछा कदापि न छोड़ेंगा, सो भी ऐसी अवस्था में कि जब तुम लोगों ऐसे मर्द दिलावर और नमकहलाल सिपाही मेरे साथी हैं। अच्छा यह सब बातें तो फिर होती रहेंगी, इस समय मैं मकान से बाहर निकल कर अपने वीरों को देखा और उनसे मिला चाहता हूँ क्योंकि यह मकान इतना बड़ा नहीं है कि सब सिपाही इसमें समा जायें और मैं इसी जगह बैठा-बैठा सबसे मिल लूँ। चलो, तुम लोग तालाब के पार चलो, मैं भी आता हूँ!"

शिवदत्त की बातें सुनकर ये सिपाही लोग बहुत ही प्रसन्न हुए और जल्दी के साथ उस मकान से निकल कर तालाब के बाहर हो गये, जहां और सब सिपाही खड़े बेचैनी के साथ इन लोगों की राह देख रहे थे और यह जानने के लिए उत्सुक थे कि मकान के अन्दर क्या हो रहा है।

सिपाहियों के बाहर हो जाने के बाद शिवदत्त भी मकान से निकला और तालाब