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पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 3.djvu/७१

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तहखाने वाली सीढ़ियों पर कोई चढ़ रहा है। कुमार उसी तरफ देखने लगे। यकायक कुँवर आनन्दसिंह आते हुए दिखाई पड़े। बड़े कुमार खुशी के मारे उठ खड़े हुए और आंखों में प्रेमाश्रु की दो-तीन बूंदें दिखाई देने लगीं। आनन्दसिंह दौड़ कर अपने बड़े भाई के पैरों पर गिर पड़े। इन्द्रजीतसिंह ने झट से उठा कर गले लगा लिया। जब दोनों भाई खुशी-खुशी उस जगह बैठ गए तब इन्द्रजीतसिंह ने पूछा, "कहो, तुम किस आफत में फंस गए थे और क्योंकर छूटे?" कुँवर आनन्दसिंह ने अपने फैंस जाने और तकलीफ उठाने का हाल अपने बड़े भाई के सामने कहना शुरू किया।

तिलिस्मी बाग के चौथे दर्जे में कुँअर आनन्दसिंह जिस तरह अपने बड़े भाई से बिदा होकर खूटियों वाले तिलिस्मी मकान के अन्दर गए थे और चाँदी वाले सन्दूक में हाथ डालने के कारण फंस गये थे, उसका इस जगह दोहराना पाठकों का समय नष्ट करना है, हाँ वह हाल कहने के बाद फिर जो कुछ हुआ और कुमार ने अपने बड़े भाई से बयान किया उसका लिखना आवश्यक है।

छोटे कुमार ने कहा-'जब मेरा हाथ सन्दूक में फँस गया तो मैंने छुड़ाने के लिए बहुत कुछ उद्योग किया मगर कुछ न हुआ और घण्टों तक फंसा रहा। इसके बाद एक आदमी चेहरे पर नकाब डाले हुए मेरे पास आया और बोला, "घबराइए मत, थोड़ी देर और सब कीजिए, मैं आपको छुड़ाने का बन्दोबस्त करता हूँ।" इस बीच में वह जमीन हिलने लगी जहाँ मैं था, बल्कि तमाम मकान तरह-तरह के शब्दों से गूंज उठा। ऐसा मालूम होता था मानो जमीन के नीचे सैकड़ों गाड़ियाँ दौड़ रही हैं। वह आदमी जो मेरे पास आया था, यह कहता हुआ ऊपर की तरफ चला गया कि 'मालूम होता है कुमार और कमलिनी ने इस मकान के दरवाजे पर बखेड़ा मचाया है, मगर यह काम अच्छा नहीं किया।" थोड़ी ही देर बाद वह नकाबपोश नीचे उतरा और बराबर नीचे चला गया, मैं समझता हूँ कि दरवाजा खोलकर आपसे मिलने गया होगा अगर वास्तव में आप ही दरवाजे पर होंगे।"

इन्द्रजीतसिंह-हाँ दरवाजे पर उस समय मैं ही था और मेरे साथ कमलिनी और लाड़िली भी थीं, अच्छा, तब क्या हुआ?

आनन्दसिंह-तो क्या आपने कोई कार्रवाई की थी?

इन्द्रजीतसिंह-की थी, उसका हाल पीछे कहूँगा, पहले तुम अपना हाल कहो। आनन्दसिंह ने फिर कहना शुरू किया

"उस आदमी को नीचे गये हुए चौथाई घड़ी भी न हुई होगी कि जमीन यकायक जोर से हिली और मुझे लिए हए सन्दूक जमीन के अन्दर घुस गया, उसी समय मेरा हाथ छूट गया और सन्दूक से अलग होकर इधर-उधर मैं टटोलने लगा क्योंकि वहाँ बिल्कुल ही अंधकार था, यह भी न मालूम होता था कि किधर दीवार है और किधर जाने का रास्ता है। ऊपर की तरफ, जहाँ सन्दूक धंस जाने से गड्ढा हो गया था देखने से भी कुछ मालूम न होता था, लाचार मैंने एक तरफ का रास्ता लिया और बराबर ही चलते जाने का विचार किया परन्तु सीधा रास्ता न मिला, कभी ठोकर खाता, कभी दीवार में अड़ता, कभी दीवार थामे घूम कर चलना पड़ता। जब दुःखी हो जाता तो