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मालवों के स्कन्धावार में युद्ध-परिषद्
देवबल—परिषद् के सम्मुख में यह विज्ञप्ति उपस्थित करता हूँ कि यवन-युद्ध के लिए जो सन्धि मालव-क्षुद्रकों से हुई हैं, उसे सफल बनाने के लिए आवश्यक है कि दोनों गणों की एक सम्मिलित सेना बनाई जाय और उसके सेनापति क्षुद्रकों के मनोनीत सेनापति मागध चन्द्रगुप्त ही हो। उन्हीं की आज्ञा से सैन्य-संचालन हो।
[सिंहरण का प्रवेश—परिषद् में हर्ष]
सब—कुमार सिंहरण की जय।
नागदत्त—मगध एक साम्राज्य है। लिच्छिवि और वृजिगंणतत्र को कुचलनेवालें मगध का निवासी हमारी सेना का संचालन करे, यह अन्याय है। मैं इसका विरोध करता हूँ।
सिंह॰—मैं मालव-सेना का बलाधिकृत हूँ। मुझे सेना का अधिकार परिषद् ने प्रदान किया है और साथ ही में सन्धि-विग्रहिक का कार्य भी करता हूँ। पंचनद की परिस्थिति स्वयं देख आया हूँ और मागध चन्द्रगुप्त को भी भलीभाँति जानता हूँ। मैं चन्द्रगुप्त के आदेशानुसार युद्ध चलाने के लिए सहमत हूँ। और भी मेरी एक प्रार्थना है—उत्तरापथ के विशिष्ट राजनीतिज्ञ आर्य्य चाणक्य के गम्भीर राजनीतिक विचार सुनने पर आप लोग अपना कर्तव्य निश्चित करें।
गणमुख्य—आर्य्य चाणक्य व्यासपीठ पर आवे।
चाणक्य—(व्यासपीठ से) उत्तरापथ के प्रमुख गणतंत्र मालव राष्ट्र की परिषद का मैं अनुगृहीत हूँ कि ऐसे गम्भीर अवसर पर मुझे कुछ कहने के लिए उसने आमंत्रित किया। गणतंत्र और एकराज्य का प्रश्न यहाँ नहीं, क्योंकि लिच्छिवि और वृजियों का अपकार करने वाला मगध का एक राज्य, शीघ्र ही गणतंत्र में परिवर्तित होनेवाला है। युद्ध-काल में एक नायक की आज्ञा माननी पड़ती है। वहाँ शलाका ग्रहण करके शस्त्र प्रहार करना असम्भव है। अतएव सेना का एक नायक तो होना ही चाहिए।