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पर्वतेश्वर की राजसभा
पर्वतेश्ववर—आर्य्य चाणक्य! आपकी बातें ठीक-ठीक नहीं समझ में आती।
चाणक्य—कैसे आवेगी, मेरे पास केवल बात ही हैं न, अभी कुछ कर दिखाने में असमर्थ हूँ।
पर्वतेश्वर—परन्तु इस समय मुझे यवनों से युद्ध करना है, मैं अपना एक भी सैनिक मगध नहीं भेज सकता।
चाणक्य—निरुपाय हूँ। लौट जाऊँगा। नहीं तो मगध की लक्षाधिक सेना आगामी यवन-युद्ध में पौरव पर्वतेश्वर की पताके के नीचे युद्ध करती। वही मगध, जिसने सहायता माँगने पर पञ्चनद का तिरस्कार किया था।
पर्वतेश्वर—हाँ, तो इस मगध-विद्रोह का केन्द्र कौन होगा? नन्द के विरुद्ध कौन खड़ा होता है?
चाणक्य—मौर्य्य-सेनानी का पुत्र चन्द्रगुप्त; जो मेरे साथ यहाँ आया है।
पर्वतेश्वर—पिप्पली-कानन के मौर्य्य भी तो वैसे ही वृषल हैं; उनको राज्यसिंहासन दीजियेगा?
चाणक्य—आर्य्य क्रियाओं का लोप हो जाने से इन लोगो को बृषलत्व मिला; वस्तुत ये क्षत्रिय हैं। बौद्धों के प्रभाव में आने से इनके श्रौत-संस्कार छूट गये हैं अवश्य, परन्तु इनके क्षत्रिय होने में कोई सन्देह नहीं। और, महाराज! धर्म्म के नियामक ब्राह्मण हैं, मुझे पात्र देखकर उसका संस्कार करने का अधिकार हैं। ब्राह्मणत्व एक सार्वभौम शाश्वत बुद्धि-वैभव है। वह अपनी रक्षा के लिए, पुष्टि के लिए और सेवा के लिए इतर वर्षों का संघटन कर लेगा। राजन्य-संस्कृति से पूर्ण मनुष्य को मूर्वाभिषिक्त बनाने में दोष ही क्या है?