सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/६४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्य मे रहस्यवाद। ५७ काव्य और काव्याभास मे-यही भीतरी या मार्मिक अन्तर होता है। कि सच्चा काव्य सामान्य भूमि पर पहुँची हुई अनुभूतियो का वर्णन करता है और काव्याभास ऐसे सच्चे वर्णन की केवल नकल करता है। नजाने कितने भॉट-कवियों ने अपने आश्रयदाता राजाओ की तुशासद में अपनी समझ में वीर और रौद्र रस लबालब भरकर बड़ी- बड़ी पोथियाँ तैयार की, पर उनको लोक ने न अपनाया। वे या तो नष्ट हो गईं या उन राजाओं के वंशधरो के घरों में बेठनो मे लपेटी पडी है। वे पोथियाँ सच्ची काव्यानुभूति की प्रेरणा से नहीं लिखी गई थी। उनके नायको की वीरमूर्ति या रौद्र-मूर्ति रामकृष्ण की, शिवा-प्रताप की, वीर-रौद्र-मूर्ति कैसे हो सकती थी ? उनके उत्साह और उनके क्रोध को लोक अपना उत्साह और अपना क्रोध कैसे चना सकता था ? । अभिव्यक्ति केवल और निर्विशेप नहीं हो सकती । ब्रह्म अपनी व्यक्त सत्ता के भीतर अपने ‘सत्' और 'आनन्द' स्वरूप की अभि- व्यक्ति के लिए असत् और क्लेश का अवस्था करता है-अपने मङ्गल रूप के प्रकाश के लिए अमङ्गल की छाया डालता है । मङ्गल- पक्ष में सौन्दर्य, हास-विकास, प्रफुल्लता, रक्षा और रञ्जन इत्यादि है , अमङ्गल-पक्ष में विरूपता, विलाप, क्लेश और ध्वंस इत्यादि हैं। इन दोनों पक्षो के द्वन्द्व के बीच से ही मङ्गल की कला शक्ति के साथ फूटती दिखाई पड़ा करती है। अत्याचार, क्रन्दन, पीड़न, ध्वंस का सहन जगत् की साधना या तप है, जो वह भगवान् की मङ्गल-कला के दर्शन के लिए किया करता है । जीवन प्रयत्न-रूप है, अतः मङ्गल भी साध्य रहता है, सिद्ध नही । जो कविता मङ्गल को सिद्ध रूप में देखने के लिए किसी अज्ञात लोक की ओर ही इशारा किया करती है, वह आलस्य, अकर्मण्यता और नैराश्य की वाणी है । वह जगत्तू और जीवन के सङ्घर्ष से कल्पना को भगाकर केवल मनोमोदक बॉधने और