काव्य में रहस्यवाद ७१. जान पड़ेगा । ऐसे तथ्य, कल्पना या विचार का-यदि उसकी कुछ सत्ता होगी-मूल्य पहले उसकी सूक्ष्मता, गम्भीरता, रमणीयता, नवी- नता आदि की पृथक परीक्षा द्वारा, प्राकृतिक रूपयोजना को अलग हटाकर, ऑका जायगा। जब उसमे कुछ सार ठहरेगा तब प्राकृतिक रूपयोजना के साथ उसके साम्य ( A11a.logy ) की रमणीयता का विचार होगा । वनावटी आडम्बरवाली कविताओं की परीक्षा के लिए इस पद्धति को बराबर स्मरण रखना चाहिए। इसके द्वारा अप्रस्तुत आरोप मात्र अलग हो जायगा और यह पता चल जायगा कि कुछ विचारात्मक या भावात्मक सोर या सच्चाई है या नहीं । कोरे अप्रस्तुत आरोप मात्र पर यदि कोई हृदय की लम्बी-चौड़ी उछल- कुद दिखाएगा तो या तो वह काव्यगत सत्य से बहुत दूर होगी, हृदय के किसी सच्चे भाव की व्यञ्जना न होगी, अथवा जिसे वह प्रस्तुत बताता है, वह ज्ञात या अज्ञात, एक ओट या वहाना मात्र होगा। सल्य सबकी सामान्य सम्पत्ति होता है , झूठ हरएक का अलग- अलग होता है । यही बात काव्यगत सत्यासत्य के सम्बन्ध में ठीक समझनी चाहिए। | विलायती समीक्षा-क्षेत्र में ‘कल्पना’ ‘कल्पना', की पुकार बहुत बढ़ जाने पर प्रकृति की सच्ची अभिव्यक्ति से विमुख करनेवाले कई प्रकार के प्रवाद प्रचलित हुए । कल्पना के विधायक व्यापार पर ही पूरा जोर देकर यह कहा जाने लगा कि उत्कृष्ट कविता वही है जिसमें कवि अपनी कल्पना का वैचित्र्यपूर्ण अारोप करके प्रकृति के रूप और व्यापारों को कुछ और ही रमणीयता प्रदान करे या प्रकृति की रूपयोजना की कुछ भी परवा न करके अपनी अन्तवृत्ति से रूप चमत्कार निकाल-निकालकर बाहर रखा करे । पहली बात के सम्वन्ध में हमें केवल यही कहना है कि कल्पना की यह कार्रवाई वही तक उचित और कवि-कर्म के भीतर होगी जहाँ तक भाव-प्रेरित होगी और