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पृष्ठ:छाया.djvu/५८

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छाया
५४
 


रमणी के मुख से चीत्कार के साथ ही निकल पड़ा--क्या, सर्दार मारा गया ?

सिकन्दर--हां, अब वह इस लोक में नहीं है ।

रमणी ने अपना मुख दोनों हाथों से ढंक लिया, पर उसी क्षण उसके हाथ में एक चमकता हुआ छुरा दिखाई देने लगा।

सिकन्दर घुटने के बल बैठ गया और बोला--सुन्दरी ! एक जीव के लिये तुम्हारी दो तलवारें बहुत थीं, फिर तीसरी को क्या आवश्यकता है?

रमणी को दृढ़ता हट गयी, और न जाने क्यों उसके हाथ का छुरा छटककर गिर पड़ा; वह भी घुटनों के बल बैठ गयी।

सिकन्दर ने उसका हाथ पकड़कर उठाया । अब उसने देखा कि सिकन्दर अकेला नहीं है, उसके बहुत-से सैनिक दुर्ग पर दिखाई दे रहे है । रमणी ने अपना हृदय दृढ़ किया और सन्दुक खोलकर एक जवाहिरात का डम्बा ले आकर सिकन्दर के आगे रक्खा । सिकन्दर ने उसे देखकर कहा---मुझे इसकी आवश्यकता नहीं है, दुर्ग पर मेरा अधिकार हो गया, इतना ही बहुत है।

दुर्ग के सिपाही यह देखकर कि शत्रु भीतर आ गया है, अस्त्र लेकर मारकाट करने पर तैयार हो गये। पर सर्दार-पत्नी ने उन्हें मना किया, क्योंकि उसे बतला दिया गया था कि सिकन्दर की विजयवाहिनी दुर्ग के द्वार पर खड़ी है।

सिकन्दर ने कहा--तुम घबड़ाओ मत, जिस तरह से तुम्हारी इच्छा होगी, उसी प्रकार सन्धि के नियम बनाये जायेंगे। अच्छा, मैं जाता हूँ।

अब सिकन्दर को थोड़ी दूर तक सर्दार-पत्नी पहुंचा गयी । सिकन्दर थोड़ी सेना छोड़कर आप अपने शिविर में चला गया ।

४'

सन्धि हो गयी । सर्दार-पत्नी ने स्वीकार कर लिया कि दुर्ग