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पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/२७

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जगद्विनोद। (२७) पुनयथा-सवैया ॥ हौं अलि आजु बड़े तरके भारके घट गोरसका पगधारौ। त्योंकबकोधौंखरोरीहुतो पदमाकर मोहितमोहिं निवारौ । सांकर खोरमें कांकरीकीकारचोट चलौफिरलौटिनिहारौ। ताछिनतेइन आंखिनते नटरयो वह माखन चाखन हारौ ।। दोहा--कछुनखाति अनखाति अति, बिरहभरी बिललाति । अरी सयानीसौतिकी, विपतिकहीनहिं जाति ॥३७॥ अथ रूपगर्विताका उदाहरण--सवैया ॥ हैन हिंमाइको मेरीभटू यह सासुरोहै सबकी सहिबो करौं । पदमाकर पाइ सुहाग सदासखियानहूको पहिचानबो करी। नेहभरी बतियां कहिकै नितसोतिनकी छतियांदहिबोकरौ। चन्द्रमुखीकहेहोतीदुखीतौनकोऊकहै गोसुखी रहियो करौ। दोहा-निरखि नयन मृगमीनसों, उठी सबै मिलभाखि । परघर जाइ गमाइरिस, हौं आई रसराखि ॥ ३९ ।। अथ दशनायकावर्णनम् ॥ दोहा-पोषित पतिका खण्डिता, कलहान्तरिता होय । विपलब्ध उका बहुरि, वासकसज्जा जोय ॥ १० ॥ स्वाधीनहु पतिका कहव, अभिसारिका बखानि । प्रकट प्रवत्स्यतपोषिता, आगतपतिकाजानि ॥४१॥ ये सब दश बिधिनायका, कावन कही निरधार । तिनके लक्षण लक्ष सब, क्रमते कहतविचारि ॥४२॥ --