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पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/५०

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(५०) जगद्विनोद । फहैं पदमाकर त्यों सहज सुगन्धही के, पुंज वन कुंजनमें कंज से भरत जात ॥ धरत जहांई जहां पग है सु प्यारी तहां, मंजुल मँजीठही की माठ सी ढरत जात । हारन ते हीरे सेत सारीके किनारनते, वारन ते मुक्ताहू हजारन झरत जात ॥ १३ ॥ दोहा--युवति जुन्हाई सों न कछु, और भेद अवरेखि । तिय आगम पिय जानिगो, चटक चांदनी पेखि ॥ चलन चहै परदेशको, जातियको जब कन्त । ताहि प्रवत्स्यत्प्रेयसी, कहत सुकवि मतिमन्त ॥ अथ मुग्धा प्रक्तस्यत्पतिका उदाहरण---सवैया ।। सेजपरीसफरीसीपलोटतज्योंज्योंघटा घनको गरजैरी। खोपदमाकर लाजनितें नकहेदुलहीहियकी हरजैरी ॥ आलीकछूकोकछू उपचार करै पै नपाइसकै सरजैरी । जाहि न ऐसे ममय मथुरै यह कोउ न कान्हरकोबरजैरी ॥ दोहा--बोलत बोल नवली विकल, घरघराव सब गात । नवयौवनके आगमन, सुनिपियगमन प्रभात ॥४७॥ अथ मध्या प्रवत्स्यत्प्रेयसीका उदाहरण--सवैया ॥ गो गृह काजगुवालनके कहै देखिबेकोकहूंदूरिके खेरो। मांगि बिदालये मोहनीसों पदमाकरमोहन होत सबेरो ॥ फेटगहीनगहीबहियां नगरी गहि गोविन्द गौनतेफेरो। गोरीगुलाबके फूलनको गजरा लैगोपालकीगैलमेंगरो॥