सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

जगद्विनोद दोहा-आवत लेन द्विरागमन, रमणि सुनत यह बानि ॥ हरषिछपाक्नहित भटू, रही पौढ़ि पटतानि ॥५९॥ मध्या आगत पतिका सवैया ॥ नंदगांवते आइगो नन्दलला लखि लाड़िली वाहिरिझायरही मुख यूँघट घालिसकै नहिं माइके माइके पीछे दुराय रही ॥ उचके कुच कीरनकी पदमाकर कैसी कछू छबि छाइरही ललचाय रही सकुचाय रही शिरनाय रही मुसकायरही ६०॥ दोहा-बिछुरिमिले पियतीय को, निरखत सुमुखिस्वरूप ॥ कछु उराहनो देनको, फरकत अधरअनूप ॥६१ ॥ प्रौढा आगत पतिका ।। कवित्त-आजु दिन कान्ह आगमनके बधाये सुनि, छाये मग फूलन सुहाये थल थलके । कहै पदमाकर त्यों आरती उतारिबे को, थारनमें दीपहार हारनके छलके । कश्चनके कलश भराये भूरि पननके, तानो तुङ्ग तोरन तहांई झलाझलके । पौरके दुवारेते लगाय केलि मन्दिर लौं, पदमनि पांवडे पसारे मखमल के ॥६२॥ दोहा-आवत कन्त विदेशते, हौं ठानक मुदमान मानहुँगी जब करहिंगे; न पुनि गमनकी आन ६३ परकीया आगतपतिका--सवैया ॥ एकै पलै रसगोरसलै अरु एकै पल मग फूल विछावत ॥