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पृष्ठ:जातिवाद का उच्छेद - भीम राव अंबेडकर.pdf/११०

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 विवाद जाति के भीतर ही होते हैं। इसलिये अच्छे-से-अच्छे और गंदे-से-गंदे दोनो तरह के मनुष्य इन्हीं विवादों से पैदा हुए हैं। पर पाश्चात्य देशों में, जहाँ जन्म-मूलक जाति-पाँति का नाम-निशान तक नहीं, ऐसे-ऐसे विज्ञानाचार्य, ऐसे-ऐसे योद्धा, ऐसे-ऐसे विचारक और ऐसे-ऐसे राजनीतिज्ञ उत्पन्न हुए और होते हैं कि उनके सामने यापकी बतलाई नासादस्ता सूर्य के सामने दीपक जान पड़ती है। अब यहाँ अंतरजातीय विवाहों का प्रचार था, तब यहाँ भी परशुराम, कर्ण, विदुर, व्यास, वसिष्ठ और पराशर पैदा होते थे। क्या ये पूज्य महाशय आपके गिनाए सेन, तिलक, बनर्जी, विद्यासागर, राय, घोष, और मालवीय से कम योग्य थे? क्या जिन ब्राह्मण विद्वानों ने कौंसिल में इस बिल का समर्थन किया, वे इन जैसे ही संभ्रांत नहीं?

आक्षेप—जाति-पाँति ने व्यापारी दुनिया में मुकाबले की दुराई को रोका है, और थोड़े से हाथों में ही धन को इकट्ठा नहीं होने दिया, जो कि योरपीय पूँजीवाद (Capitalism) में भारी दोष है।

उत्तर—यह बात सत्य नहीं। जितना धन इस समय द्विज-नाम-धारियों के पास है, उसका आठवाँ भाग भी अछूतों और शूद्रों के पास नहीं। यदि जाति-पाँति को माननेवाले ब्राह्मण, डॉक्टर, वैद्य, ज़मींदार, साहूकार, इंजीनियर, मजिस्ट्रेट, ठेकेदार और सरकारी नौकर होना छोड़ दे और अपना सारा धन वैश्यों को दे दें: यदि नामधारी बैंक, दूकान, वकीली, अध्यापकी, डॉक्टरी द्वारा धन कमाना छोड़ दें: यदि वैश्व-नामधारी जज, मजिस्ट्रेट, वकील, अध्यापक बनना छोड़ दें, सब आप यह बात कह सकते है। आप तो यह चाहते हैं कि शूद्र और अछूत कम लाभदायक काम करते हुए गरीब बने रहें, और आप जिस काम में लाभ देखें, वही करने लगे। यदि इसी मुकाबले की दौड़-धूप से समाज को बचाना है, सो अँगरेज़ों से