पृष्ठ:जातिवाद का उच्छेद - भीम राव अंबेडकर.pdf/१९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(३१)


रतनचन्द ने आज खुले हाथों, पानी की तरह, पैसा खर्च किया ऐसा महत्वपूर्ण प्रीतिभोज आज तक हैदराबाद में किसी ने न देखा था। देखने वाले वाह ! वाह ! कर उठे । वह घर जो कल तक ऊजख़,सुनसान और स्मशान-सरीखा लगता था, आज्ञ स्वर्ग-धाम बन गया था । सैकड़ो स्त्रियों, पुरुषों और बच्चों ने घर की शोभा बढ़ाई थी | रात के कहीं बारह बजे यह उत्सव समाप्त हुआ।

अगले दिन प्रातः काल जब दीवान रत्नचन्द सोकर उठे, तो उनके दोनों पौत्र पहले ही जग चुके थे ।बड़ा पोता अपनी तोतली बोली से दादी को हँसा रहा था और छोटा अपनी चंचलता से सब का ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर रहा था। घर की चहल-पहल पहले से सहस्रगुना हो गयी थी। किशोर के मित्रों और कमला की सहेलियों का आवागमन,बच्चों के कोलाहल में मिले कर, अनूठा आनन्द उत्पन्न कर रहा था। नित्य सवेरे सात बजे से लेकर रात के ग्यारह-बारह बजे तक आनन्द की धारा बहती रहती थी । जब रत्नचंद नरेश को देखता, तो उसे किशोर का बचपन याद हो जाता। वही चेहरा-मोहरा, नही चाल-ढाल । यह देख वह उसे उठाकर छाती से लगा लेता। इस प्रकार वृद्ध रत्नचंद और भाग्यवती बड़े आनन्द का जीवन व्यतीत कर रहे थे । किन्तु दुर्भाग्य ने उन्हें अधिक समय तक यह सौभाग्य न भोगने दिया। कुछ दिन अस्वस्थ रह कर रत्नचंद परलोक सिधारे । और एक महीने के बाद उनकी स्त्री ने भी उनका अनुगमन किया । किशोर को इससे हार्दिक तुःख हुआ। । वह हर समय चिन्तित रहने लगी। अब यहां रहने को उसका चित्त ने चाहता था। अब उसे अपने धर्म-पिता ( मि० कूपर ) और धर्ममाता ( श्रीमती कपूर ) का स्मरण आने लगा । उधर