पृष्ठ:जायसी ग्रंथावली.djvu/४७३

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आखरावट २७१ दोहा पुति साई व जन रमै, औौ निरमल सब चाहि । जेहि न लि कि७ लागेलावा जाड़ न हि ॥ जोगि, उदासी दास, तिन्हहिं न दुख औौ सुख हिया । घरही माह दास, मुहमद सोइ सराहिए ।॥ ४८ ॥ सु चेला ! स स व संसारू। श्रोहि भाँति तुम कथा बिचारू ॥ जौ जिक कथा तो दुख स भोजा। पाप के प्रोट पुन्नि सब छीजा ॥ जस प्रज उय देख अकाए। सब जग पुनि उहै परगासू ॥ भल ो जहाँ होई । सब पर धूप रहै पुनि सोई ॥ मंद लगि मंदे पर वह दिस्टि जो परई। ताकर लैि नैन हैों हुई। अस वह निरमल धरति अकसा। जैसे मिली फूल महें बासा । सवें सब परकारान ठाँव श्री । ना वह मिला, "रहै निनारा ॥ दोहा श्रोहि जोति परव्ाहीं, नव खंड उजियार। । सुज चाँद के जोती, उदित अहै संसार ॥ सोरटा जे हि जोति सरूप, चाँद सुरुज तारा भए । ४९ तेहि कर रूप अनूप, मुहमद व रनि न जइ किए ॥ ॥ चेलै समभि, गुरू स भू । धरती सरग बीच सब छा ॥ कान्ह न यूनी, भोति, न पाखा । केहि बिधि टेकि गगन यह राखा । कहीं स आई मेघ बरिसावै। सेत साम सत्र होइ के धावै ? ॥ पानी भरे समद्र हि जाई। कहाँ से उतरे, बरसि बिलाई ? ॥ पानी मां , उन्हें बजरागी । कहाँ से लौकि बीज भुहूँ लागी ? ॥ कहाँ सूर, चंद श्र तारा। लागि अकास करहि उजियारा ? ॥ सूरज उवे बिहनहिं आाई। पुनि सो अर्थ कहाँ कहें जाई ॥ जेहि न ...ताहि मैलि= जो निष्कलंक है उसमें कलंक या बुराई का आरोप करते नहीं बनताघरही माहूँ उदास । == जो गृहस्थी में रहकर अपना कर्म करता हश्रा । भी उदासीन या निष्काम रहता है । (४६) औोही भाँति, विचारु = जैसे जीवात्मा शुद्ध ग्रानंदस्वरूप है पर शरीर के संयोग में ःख प्रादि से युक्त दिखाई पड़ता है। वैसे ही शुद्ध ब्रह्म संसार के व्याववारिक क्षेत्र में भला वरा नादि कई रूपों में दिखाई पड़ता है (शरीर ौर जगत् की एकता पहले कह आए हैं) । पराहीं = परछाई से । (५०) चे = चेले ने । थनी=टेक । बजरागी= व जाग्नि, बिजली । लौकिचमककर। मूर - कोह = क्रोध। , मूल नक्षत्र । "ले