अंथर्ववेद ज्ञानकोश (अ) १७२ अथर्ववेद वशा माता राजन्यस्य वशामाता स्वधे तव । अंश है-इस तत्वकी खोज उन्होंने स्वयं नहीं की वशोयायज्ञ आयुधं ततश्चित्तमजायत ॥१८॥ थी बल्कि यह सिद्धांत पहले ही प्रचलित था। गऊ पृथ्वी और जल का संरक्षण करती है। इन्होंने उसे गूढ़ अव्यक्त और असंगत रीतिसे इसके पीछे सौ दूधके घड़े, सौ दूध दुहने वाले लोगोंके सामने रखने की कोशिश की। ऋग्वेदके और सौ ग्वाले रहते हैं। जिन देवताओंका इसके १० वे मंडलके १२१ वे सूक्तमें एक अच्छे तत्त्ववेत्ता शरीर में बास होता है वही इसको जानते हैं । यह तथा कविने विश्वके अनुपम वैभवका वर्णन बहुत क्षत्रियोंकी और स्वधा की माता है। इस का शस्त्र ही स्पष्ट भाषामें किया है। परन्तु वह संदेहमें यज्ञ है। 'चित्त' की उत्पत्ति इसीके कारण होती है। पड़जाता है कि ऐसे विश्वको उत्पन्न करने वाला इस प्रशंसा की सीमा निम्न लिखित ऋचामे कौन है। ठीक इसके विपरीत अथर्ववेदमें (कांड१०, दिखायी देती है- सूक्त २ ) में एक कवि (सूक्तकर्ता) मनुष्य- वशामेवामृत माहुर्वशां मृत्युमुपासते। शरीरके अवयवोका रसीला वर्णन करता है और गौ ही को अमृत कहते हैं। इसीको मृत्यु समझ प्रश्न करता है कि इनको किसने बनाया। कर इसकी पूजा करते हैं। केन पार्णी आभृते पूरुषस्य केन मांसंसंभृतंकेनगुल्फी वशेदं सर्वम भवद् देवा मनुष्या ३ असुराः केनांगुली पेशनीः केन खानि पितर ऋषयः।। २६ ॥ कस्मान्न गुल्फावधरावकण्वन्नष्ठीवन्तावुत्तरो पूरु- मनुष्य, असुर पितर, ऋषि-ये सब वशा षस्य जो निर्ऋत्य न्यदधुःक्व स्मिजानुनोःसंधीक उ गौ) के ही रूप हैं। अब आगे लिखा गया है कि तश्चिकेत ॥२॥ नित्य व्यवहारमें गौका क्या स्थान है- इस संबंध की आठ ऋचाएँ हैं और आगे य एवं विद्यात् सवशां प्रति गृह्णीयात् ।। २७॥ दी हुई नौ ऋचाओंमें मनुष्य-रचना और उसके जो इस प्रकर जानता है उसीको गौका प्रतिग्रह जीवन संबंधी समस्त बातोकी जाँच पड़तालकी है। (दान ) करना चाहिये। प्रियाप्रियाणि बहुला स्वप्नं संवाधतन्यः । आनन्दानुग्रो नन्दांश्च कस्माद वहति पूरुषः। ब्राह्मणेभ्यो वशां दत्वा सर्वांल्लोकान्समश्नुते । आर्तिरवर्तिनितिः कुतो. ऋतंह्यऽस्यामर्पितमपि ब्रह्माथो तपः ।। ३३॥ को अस्मिन्नापौ व्य दधात्..... ॥ ११ ॥ ब्राह्मणको गाय देनेवाला सब लोकों को प्राप्त ! को अस्मिन् रूपमदधात्को मह्मानं च नाम च। करता है क्योंकि गऊमें ऋत (सत्य), ब्रह्म और | गातुम्कोअस्मिन् कः केतुम्कश्चरित्राणिपूरुषे१२॥ तप-ये सब वास करते हैं। X अन्त में- को अस्मिन्सत्यं कोनृतं कुतो मृत्युः कुतोमृतम्॥१४॥ वांदेवा उप जीवन्ति वशां मनुष्या उत । इसके पश्चात् उन्हीं कवियों (सूक्तकर्ताओं वशेदं सर्वमभवद् यावत् सूर्यो विपश्यति ॥३४॥ ने सवाल किया है कि सृष्टिके ऊपर मनुष्यने किस अथर्वा० १०,१० प्रकार अधिकार प्राप्त किया ? इस प्रकारके सब देवताओं का पेट गौपर निर्भर है, उसी प्रकार : प्रश्नों का एकही उत्तर दिया गया है कि मनुष्य मनुष्य भी गौपर ही निर्भर है। जहांतक सूर्यकी ब्रह्मरूप है,अतः उसे यह शक्ति प्राप्त हुई । यहाँ तक किरणें पहुँचती हैं वहाँ तक सब गऊ ही की माया है। तो यह सूक्त सुन्दर न होते हुए भी शुद्ध और जर्मन विद्वान डयूसन ( Deussen) ने अथर्व स्पष्ट है । किन्तु भागेकी २६ से ३३ ऋचा तक फिर वेदके तात्त्विक सूक्तों का अर्थ स्पष्ट करने की वही आँखमुंदौवलका खेल शुरू हो जाता है। कोशिश की है और बहुत अंशोंमें वे उसका क्रम एकाध ऋचाएँ देखिये। मिलाने में सफल भी हुए हैं। उदाहरण के लिये मूर्धानमस्य संसीव्याथर्वा हृदयं च यत् । १०वें कांड के २रे सूक्त में ब्रह्मसिद्धिका विचार मस्तिष्कादूर्ध्वः भैरयत्पवमानोधिशीर्षतः॥६॥ जडवाद और मीमांसाको दृष्टिसे किया गया है। तद् वा अथर्वणः शिरो देवकोशः समुज्यितः । उसी का ११वें कांडके वे सूक्त में आध्यात्मिक तत् प्राणो अभिरक्षति शिरोअनमथोमनः।२७१ दृष्टिसे विचार किया गया है । विंटरनीट्ज़के अथर्व०१०२. मतानुसार इस सूक्तमें इतना आध्यात्मिक महत्व है। ऐसी ऋचाओंमें गहनतत्वज्ञानकी खोज करना ही नहीं। इनका कथन है कि इन सूक्तोंके लेखक मानो उन्हें अनुचित महत्व देना है। डयूसनके मता- झूठे तत्वज्ञानी थे। मनुष्य विराट विश्वात्माका नुसार अथर्व संहिताके ११ वे काण्डकै ८ वे सूक्त x X X X X X X X ।