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पृष्ठ:दासबोध.pdf/५०१

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ए. सत्रहवाँ दशक । पहला समास-अन्तरात्मा की सेवा । ॥ श्रीराम ॥ निश्चल ब्रह्म में चंचल आत्मा है। सब से परेजो परमात्मा है वही चैतन्य, साक्षी, ज्ञानात्मा और षड्गुणेश्वर है ॥१॥ वह सारे जगत् का ईश्वर है, इसी लिए उसे जगदीश्वर कहते हैं-उसीसे यह विस्तार हुआ है ॥२॥ शिवशक्ति, जगदीश्वरी, प्रकृतिपुरुप, परमेश्वरी, मूलमाया, गुणेश्वरी और गुणक्षोभिणी वही है ॥ ३॥ क्षेत्रज्ञ, द्रष्टा, कूटस्थ, साक्षी, अंतरात्मा, सब को देखनेवाला; शुद्ध सत्व, महतत्व, परीक्षा करनेवाला और ज्ञाता साधु वही है ॥ ४॥ ब्रह्मा, विष्णु, महेश, नाना पिंडों का जीवेश्वर, नादि सब छोटे बड़े प्राणिमात्र उसे भासते हैं ॥ ॥ वह (अंतरात्मा ) देहरूप देवालय में बैठा है; भजन न करने पर देह को मारता है; इसी लिए उसके भय से उसे लोग भजते हैं ॥ ६॥ जो समय पर भजन भूल जाता है उसे वह उसी समय पछाड़ देता है, इसीसे सारे लोग उसे प्रेमपूर्वक भजने लगे हैं ॥ ७ ॥ वह जब जिस बात की अपेक्षा करता है तभी वह उसे लोग देते हैं, इसी प्रकार सब लोग उसका भजन करते हैं ॥ ८॥ पाचों विषयों का नैवेद्य, जब उसे चाहिये हो तभी, ठीक रखना पड़ता है, ऐसा न करने से उसी दम रोग होते हैं ॥६॥ जिस समय नैवेद्य नहीं पाता उसी समय देव (अन्तरात्मा) नहीं रहता-- वह नाना प्रकार का सौभाग्य, वैभव और पदार्थ छोड़ कर चला जाता है ॥ १० ॥ आते समय यह किसीको मालूम भी नहीं होने देता-किसी- को उसकी खबर ही नहीं लगती। उसके बिना कोई भी उसका अनुमान नहीं कर सकता ॥ ११ ॥ देव को देखने के लिए देवालय ढूँढ़ने पड़ते हैं। देव कहीं न कहीं देवालय के गुण से प्रगट होता है ॥ १२॥ नाना शरीर ही देवालय हैं-इन्हीं में जीवेश्वर रहता है । नाना प्रकार के नाना शरीर हैं-उनके अनंत भेद हैं. ॥१३॥ इन चलते-बोलते देवालयों में 'आप' (देव) रहता है । जितने देवालय हैं उतने सब मालूम होने चाहिए ॥ १४ ॥ मत्स्य, कूर्म, या बहुत काल तक भूगोल धारण करने- बाला वाराह, आदि अनेक कराल, विकराल और निर्मल देवालय हो गये ॥ १५ ॥ अनेक देवालयों में वह सुख पाता है, समुद्र की तरह सुख ले