पृष्ठ:दासबोध.pdf/६९

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दासबोध की आलोचना । कहावत भी है कि " टाँकी सहै सो देवता होय" । टाँकी से गढ़-गढ़ कर मूर्ति तैयार की जाती है, तब तो उसमें देवपन आता है । कष्ट विना फल नहीं है; विना किये कुछ नहीं है । राज्य-संस्था प्रस्थापित हुए विना नीति और धर्म को रक्षा कैसे हो सकती है? सिद्ध और साधकों को, स्वातन्त्र्येच्छुक लोगों की सहयता से, राजकीय समुदाय बनाने का उपदेश करके समर्थ व्यक्तिमान को शिक्षा देते हैं कि देश में जो राजा होगा या राज्य का प्रतिनिधि हंगा, उसके समुदाय में जाकर, उसके आश्रय से, रहना चाहिए। आश्रयरहित या विलग रहने से अच्छी · गति न होगी। समर्थाची नाही पाठी । तयास भलताच कुटी ॥ ३० ॥ . जो समर्थ पुरुप के आश्रय से नहीं रहता, उसे मामूली आदमी कूट डालता है। इस प्रकार राज्य-संस्था प्रस्थापित करना नीतिमान् और धार्मिक नेताओं तथा अनुयायिओं को हितदायक है। इस संस्था को सहायता से जीवात्मा को परमात्मा से सायुज्यता अर्थात् परमार्थ, मोक्ष, मुक्ति या स्वतन्त्रता मिलती है परमार्थी तो राज्यधारी । परमार्थ नाहीं तो भिकारी। या परमार्थाची सरो। कोणास द्यावी ॥ २३ ॥ । जो परमार्थों है, वहीं राजा और जिसके पास परमार्थ नहीं वही भिखारी है इस परमार्थ की उपमा किससे दें ? १३--दासबोध की विशेषता । हम पहले कह चुके हैं कि दासबोध में एक विशेषता है । इस ग्रन्थ में वेदान्त के सिद्धान्तों का निरूपण, समर्थ के समय के महाराष्ट्र की परिस्थिति के अनुकूल किया गया है। महाराष्ट्र की उस समय की अवस्था में जिस प्रकार का निरूपण उचित, आवश्यक और 'उपये.गीं था वैसा ही इस ग्रन्थ में समर्थ ने, स्वतन्त्र रीति से किया है। भगवद्गीता में वेदन्तिविषय का जो निरूपणं है, उसका तत्व यद्यपि सर्वदा एक समान लागू है, पर वह गीतां-कले.नं समाज-अवस्था के अनुकूल अधिक लगता है । वैसा निरूपण १७ वी सदी, में समर्थ को अनावश्यकं जान पड़ा। इसलिए, यद्यपि उस ग्रन्थ में वेदान्त के उन्हीं । सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है जो उपनिषद, गीता और भागवत आदि ग्रन्थों में हैं; तथापि प्रबन्ध-रचना, निरूपण-शैली और दृष्टान्त आदि विलकुल नये ढंग के हैं ऐसे हैं जो तत्कालीन महाराष्ट्र को लागू थे। दासबोध किसी अन्य ग्रन्थ का अनुवाद, टीका या " आधार पर" लिखा हुआ ग्रन्थ नहीं है । अपने समय के समाज (देश) की नैतिक,