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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/११५

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दिल में है यार की सफ़-ए-मिश़गाँ से रूकशी
हालाँकि ताक़त-ए-ख़लिश-ए-ख़ार भी नहीं

इस सादगी प कौन न मर जाये, अय ख़ुदा
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं

देखा असद को ख़ल्वत-ओ-जल्वत में बारहा
दीवानः गर नहीं है, तो हुशियार भी नहीं

११४

नहीं है जख़्म कोई बख़िये के दरख़ुर, मिरे तन में
हुआ है तार-ए-अश्क-ए-यास रिश्तः चश्म-ए-सूजन में

हुई है माने‘-ए-जौक़-ए-तमाशा, खानः वीरानी
कफ-ए-सैलाब बाक़ी है, बरंग-ए-पँबः रौज़न में

वदी‘अत ख़ानः-ए-बेदाद-ए-काविशहाः-ए-मिशगाँ हूँ
नगीन-ए-नाम-ए-शाहिद है मिरे हर क़तरः खृँ तन में

बयाँ किससे हो, जुल्मत गुस्तरी मेरे शबिस्ताँ की
शब-ए-मह हो, जो रख दें पँबः दीवारों के रौज़न में

निकोहिश माने‘-ए-बेरब्ति-ए-शोर-ए-जुनूँँ आई
हुआ है ख़न्दः-ए-अहबाब बखियः जैब-ओ-दामन में