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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१३७

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‘अुम्र भर का तूने पैमान-ए-वफ़ा बाँधा तो क्या
‘अुम्र को भी तो नहीं है पायदारी हाय हाय

जह्र लगती है मुझे आब-ओ-हवा-ए-ज़िन्दगी
या‘नी तुझसे थी उसे नासाजगारी हाय हाय

गुलफ़िशानीहा-ए-नाज़-ए-जल्वः को क्या हो गया
ख़ाक पर होती है तेरी लालःकारी हाय हाय

शर्म-ए-रुस्वाई से, जा छुपना निक़ाब-ए-ख़ाक में
ख़त्म है उल्फ़त की तुझपर पर्दःदारी हाय हाय

ख़ाक में नामूस-ए- पैमान-ए-महब्बत मिल गई
उठ गई दुनिया से राह-ओ-रस्म-ए-यारी हाय हाय

हाथ ही तेग़ आज़्मा का काम से जाता रहा
दिल प इक लगने न पाया ज़ख़्म-ए-कारी हाय हाय

किस तरह काटे कोई, शबहा-ए-तार-ए-बर्शकाल
है नज़र खू करदः-ए-अख़्तर शुमारी हाय हाय

गोश मह्जूर-ए-पयाम-ओ-चश्म महरूम-ए-जमाल
एक दिल, तिसपर यह नाउम्मीदवारी हाय हाय

‘अिश्क़ ने पकड़ा न था, ग़ालिब, अभी वह्शत का रँग
रह गया, था दिल में जो कुछ ज़ौक़-ए-ख़्वारी हाय हाय