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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१६५

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दे मुझको शिकायत की इजाज़त, कि सितमगर
कुछ तुझको मज़ा भी मिरे आज़ार में आवे

उस चश्म-ए-फ़ुसूँगर का, अगर पाये इशारा
तूती की तरह आइनः गुफ़्तार में आवे

काँटों की ज़बाँ सूख गई प्यास से, यारब
इक आब्लः पा वादि-ए-पुरखार में आवे

मरजाऊँ न क्यों रश्क से, जब वह तन-ए-नाज़ुक
आग़ोश-ए-खम-ए-हल्क़:-ए-ज़ुन्नार में आवे

ग़ारतगर-ए-नामूस न हो, गर हवस-ए-ज़र
क्यों शाहिद-ए-गुल, बाग़ से बाज़ार में आवे

तब चाक-ए-गरीबाँ का मज़ा है, दिल-ए-नादाँ
जब इक नफ़स उलझा हुआ, हर तार में आवे

आतशकदः है सीनः मिरा, राज़-ए-निहाँ से
अय वाय, अगर मा‘रिज़-ए-इज़्हार में आवे


गँजीनः-ए-मा‘नी का तिलिस्म उसको समझिये
जो लफ़्ज़ कि ग़ालिब, मिरे अश‘आर में आवे