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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/१६९

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शिकवे के नाम से, बेमेह्र ख़फ़ा होता है
यह भी मत कह, कि जो कहिये ,तो गिला होता है

पुर हूँ मैं शिकवे से यों, राग से जैसे बाजा
इक ज़रा छेड़िये, फिर देखिये, क्या होता है

गो समझता नहीं, पर हुस्न-ए-तलाफ़ी देखो
शिकवः-ए-जौर से, सरगर्म-ए-जफ़ा होता है

‘अिश्क़ की राह में, है चर्ख़-ए-मकौकब की वह चाल
सुस्त रौ जैसे कोई आबलः पा होता है

क्यों न ठहरें हदफ़-ए-नावक-ए-बेदाद, कि हम
आप उठा लाते हैं, गर तीर ख़ता होता है

ख़ूब था, पहले से होते जो हम अपने बदख़्वाह
कि भला चाहते हैं और बुरा होता है


नालः जाता था, परे ‘अर्श से मेरा, और अब
लब तक आता है जो ऐसा ही रसा होता है