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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/७४

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मक़सद है नाज़-ओ-ग़मज़ः, वले गुफ़्तगू में, काम
चलता नहीं है, दश्नः-ओ-ख़ंजर कहे बिग़ैर

हरचन्द, हो मुशाहदः-ए-हक़ की गुफ़्तगू
बनती नहीं है, बादः-ओ-साग़र कहे बिग़ैर

बहरा हूँ मैं, तो चाहिये दूना हो इल्तिफ़ात
सुनता नहीं हूँ बात, मुकर्रर कहे बिग़ैर

ग़ालिब, न कर हुज़ूर में तू बार बार 'अर्ज़
ज़ाहिर है तेरा हाल सब उनपर, कहे बिग़ैर


६१

क्यों जल गया न ताब-ए-रुख़-ए-यार देख कर
जलता हूँ, अपनी ताक़त-ए-दीदार देख कर

आतश परस्त कहते हैं अहल-ए-जहाँ मुझे
सरगर्म-ए-नालः हा-ए-शररबार देख कर

क्या आबरू-ए-'इश्क़, जहाँ 'आम हो जफ़ा
रुकता हूँ तुम को बेसबब आज़ार देख कर