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पृष्ठ:दीवान-ए-ग़ालिब.djvu/८८

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आह को चाहिये इक ‘अुम्र, असर होने तक
कौन जीता है तिरी जुल्फ़ के सर होने तक

दाम-ए-हर मौज में है, हल्कः-ए-सद काम-ए-निहँग
देखें क्या गुजरे है क़तरे प, गुहर होने तक

‘आशिक़ी सब्र तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रँग करूँ, ख़ून-ए-जिगर होने तक

हमने माना, कि तग़ाफ़ुल न करोगे; लेकिन
ख़ाक हो जायेंगे हम, तुमको ख़बर होने तक

परतव-ए-ख़ुर से है शबनम को, फ़ना की ता‘लीम
मैं भी हूँ, एक ‘अिनायत की नज़र होने तक

यक नज़र बेश नहीं, फ़ुर्सत-ए-हस्ती ग़ाफ़िल
गर्मि-ए-बज़्म है, इक रक़्स-ए-शरर होने तक


ग़म-ए-हस्ती का, असद किससे हो जुज़ मर्ग ‘अिलाज
शम‘अ हर रंग में जलती है सहर होने तक