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पृष्ठ:देवांगना.djvu/४१

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"धीरे-धीरे हो रही है, किन्तु तुम कौन हो?"

"मैं...मैं! सुखदास?"

"पितृव्य? अरे, तुम यहाँ कहाँ?"

"चुप! मैं सुखानन्द भिक्षु हूँ, तुम्हारी कल्याण कामना से यहाँ आया हूँ।"

"उसके लिए तो संघस्थविर ही यथेष्ट थे, इस अन्ध नरक में मेरी यथेष्ट कल्याण कामना हो रही है।"

"आज इस नरक से तुम्हारा उद्धार होगा, आशीर्वाद देता हूँ।"

"किन्तु अभी तो प्रायश्चित्त की अवधि भी पूरी नहीं हुई है।"

"तो इससे क्या? भिक्षु सुखानन्द का आशीर्वाद है यह?"

"पहेली मत बुझाओ यहाँ, बात जो है वह कहो।"

"तो सुनो, संघस्थविर जा रहे हैं काशी, उनके साथ 12 भिक्षु जाएँगे। उनमें तुम्हें भी चुना गया है।"

"काशी क्यों जा रहे हैं आचार्य?"

"समझ सकोगे? काशिराज और अपने महाराज का सर्वनाश करने का षड्यन्त्र रचने।"

"सर्वत्यागी भिक्षुओं को इससे क्या मतलब?"

"महासंघस्थविर वज्रसिद्धि त्यागी भिक्षु नहीं हैं। वे राज मुकुटों के मिटाने और बनाने वाले हैं।"

"फिर यह धर्म का ढोंग क्यों?"

"यही उनका हथियार है, इसी से उनकी विजय होती है।"

"और पवित्र धर्म का विस्तार!"

"वह सब पाखण्ड है।"

"तुम यहाँ क्यों आए पितृव्य?"

"तब कहाँ जाता? जहाँ बछड़ा वहाँ गाय।"

"समय क्या है? इस अन्धकार में तो दिन-रात का पता ही नहीं चलता।"

"पूर्व दिशा में लाली आ गई है, सूर्योदय होने ही वाला है। संघस्थविर आ रहे हैं। मैं चलता हूँ।"

"संघस्थविर इस समय क्यों आ रहे हैं?"

"तुम्हें पाप-मुक्त करने, आज का मनोरम सूर्योदय तुम देख सकोगे––यह भिक्षु सुखानन्द का आशीर्वाद है।"

सुखानन्द का मुँह खिड़की पर से लुप्त हो गया। इसी समय एक चीत्कार के साथ भूगर्भ का मुख्य द्वार खुला। आचार्य वज्रसिद्धि ने भीतर प्रवेश किया। उनके पीछे नंगी तलवार हाथ में लिए महानन्द था। आचार्य ने कहा :

"वत्स धर्मानुज, क्या तुम जाग रहे हो?"

"हाँ आचार्य, अभिवादन करता हूँ।"

"तुम्हारा कल्याण हो, धर्म में तुम्हारी सद्गति रहे। आओ, मैं तुम्हें पापमुक्त करूँ।"

उन्होंने मन्त्र पाठकर पवित्र जल उसके मस्तक पर छिड़का, और कहा—"तुम पाप