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पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/२०४

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१९० द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र मैं इन निबंधों के छपाने के बारे में आपको लिखा था, आपने स्वयं प्रूफ पढ़ने और शुद्ध छाप देने की आशा दिलाई थी, लिखा था कि प्रेस के संस्कृत प्रूफ मैं स्वयं पढ़ता हं, इत्यादि-उसी भरोसे मैं श्रीमान् की सेवा में यह गुस्ताखी कर बैठा, खता माफ हो। मुझे यह मालूम नहीं था कि श्रीमान् को 'पृफ पढ़ने के लिये फुरसत नहीं"। ____ आप शिकायत करते हैं कि "जो काम आपके यहां आसानी से हो सकता है उसे मैं अन्यत्र भेजता हूँ"। मैं आपको शपथपूर्वक विश्वास दिलाता हूं कि मैं हर्गिज ऐसा नहीं करता, जबसे आपका प्रेस कायम हुआ है मैंने कोई काम कहीं छपने नहीं भेजा है, विद्यालय के काम से मुझसे कोई संबंध नहीं है, म० वि० के मुख्याधिष्ठाता और मंत्री जहां उचित समझते हैं, विज्ञापन आदि छपाते हैं, मेरा उसमें कोई दखल नहीं है, मेरा अपना कोई काम नहीं है, पं० यंदुशर्मा से पुस्तक मैंने प्रेरणा करके आपके प्रेस में भिजवाई है, और भी मिलनेवालों से प्रेरणा करता रहता हूँ, कई कारण है कि मैं विद्यालय के काम में दखल देना नहीं चाहता। "निबंध" आपके यहां क्यों छपाना चाहता हूँ, यह मैंने सविस्तार अपने पहले पत्र में निवेदन कर दिया था, सुपाठ्य और शुद्ध काम आपके यहां इसलिये छपाना चाहता हूँ कि आप इस योग्य हैं, मैं कुछ हक आप पर और आपके प्रेस पर अपना समझता हूँ, आपने ऐसी ही आशा भी दिलाई थी, अब मालूम हुआ कि ऐसा नहीं हो सकता, बहुत अच्छा, तथास्तु। भवदीय पद्मसिंह शर्मा ( ९१.) ज्वालापुर ७-३-१३ श्रीयुत माननीय द्विवेदी जी प्रणाम कृपापत्र मिला, पढ़कर दुख हुआ। मुझे यह मालूम नहीं था, अपराध क्षमा हो। उत्सव के पश्चात् आपकी आज्ञा का पालन करूंगा, कोई लेख अवश्य भेजूंगा। .. कृपापात्र पद्मसिंह शर्मा