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नाट्यसम्भव।

(१) धर्म अर्थ अरु काम कोसाधन नाटक जानि।
ताके अभिनय करि लहसुकविमुक्तिमनमानित॥

भरत। हे माता! आज हम एक मुख से अपने भाग्य की प्रशंसा और तुम्हारी दया की नहिमा वर्णन नहीं कर सकते। (आनन्दाश्रु गिर पड़ते हैं)

सरस्वती। और देख! नाटकाभिनय देख कर देवता हो या मनुष्य, सबका हृदय शृङ्गार, वीर, करुणा आदि। रसों से पूर्ण होकर तदाकारता को प्राप्त होता है। चाहे कोई किसी प्रकृति का क्यों न हो, पर वह भी नाटकाभिनय को देख कर उसमें वर्णित रस के अनुभार अपनी प्रवृत्ति को प्रगट करता है। वत्स! यह ऐसी विचित्र कल है कि इसके द्वारा देश वा नमाज का मब कुछ उपकार होसकता है। विशेष क्या कहे, भूमंडल में जब यह विद्या प्रचलित होगी तो इसके अनुरागी मनुष्यों के मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होनायगा। बाकि इस विद्या से लौकिक और पारलौकिक, दोनों कर्म सिद्ध हेाते है।

भरत। हे स्नेहवती जननी निस्संदेह आज हमारे मुख की सीमा न रही। हम छुद्र जीव एक मुख से तुम्हारी


(१) धर्मार्थकाममोक्षाणां साधकं नाटकं भवेत्।
यस्याभिनयमात्रेण मुक्तिः करतले स्थिता॥

(अग्निपुराण)